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17 जनवरी 2010

गलत फैसलों से बढ़े चीनी के दाम

January 16, 2010
अर्थशास्त्र का सामान्य सिध्दांत है कि अगर किसी जिंस की कमी होती है तो उसकी कीमतें बढ़ जाती हैं।
अगर चीनी जैसी आवश्यक जिंस की बात हो, जिसकी आपूर्ति में वैश्विक कमी है और दो प्रमुख उत्पादन केंद्रों पर उत्पादन में कमी आई हो तो कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी स्वाभाविक है।
भारत में 1972 के बाद से सबसे खराब मॉनसून पिछले साल रहा और 2009 के अंतिम महीनों में ब्राजील में गन्ने की खेती बुरी तरह खराब हुई, जिसका परिणाम यह हुआ कि पिछले 12 महीनों में चीनी की कीमतें 30 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गईं।
पिछले साल दुनिया में करीब 110 लाख टन चीनी की कमी हुई। यही कारण है कि एलआईएफएफई में सफेद चीनी के मार्च महीने के वायदा दाम 730 से 748 डॉलर प्रति टन पर पहुंच गए। वहीं आईसीई में कच्ची चीनी के दाम 27.91 सेंट से 28.95 सेंट प्रति पाउंड के बीच हैं।
नए साल और क्रिसमस के समय कारोबारी बंदी के बाद जब जनवरी 2009 में बाजार खुले थे तो एलआईएफएफई में मार्च का सौदा सफेद चीनी के लिए 327.80 डॉलर प्रति टन और आईसीई में कच्ची चीनी के सौदे 11.82 सेंट प्रति पाउंड पर हुए थे।
2008-09 में भारत में फसल की कमी होने की प्रमुख वजह यह थी कि किसानों ने गन्ने को लाभ की खेती नहीं समझा और वे अन्य फसलों की ओर आकर्षित हुए। गुड़ और खांडसारी इकाइयों ने देखा कि भारत केवल 146 लाख टन चीनी बना रहा है, जबकि जरूरत 225 लाख टन चीनी की है।
उन दिनों शुरुआती स्टॉक पर्याप्त था, साथ ही आयात भी हुआ। लेकिन अब स्थिति यह है कि दुनिया जानती है कि हमारे देश में चीनी की कमी है और बड़े पैमाने पर आयात करना पड़ेगा। घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए कच्ची और सफेद दोनों ही चीनी का बड़े पैमाने पर किसी भी कीमत पर आयात करना होगा।
चीनी की बढ़ती कीमतों के संकट को देखते हुए कृषि मंत्री शरद पवार ने हकीकत को स्वीकार किया और कहा, 'हमने जब चीनी का आयात करने का फैसला किया तो मात्रा पर विचार करते हुए इसकी वैश्विक कीमतें बहुत तेजी से बढ़ गईं और जब अतिरिक्त उत्पादन के चलते निर्यात की स्थिति आती है तो चीनी की वैश्विक कीमतें धराशायी हो जाती हैं।'
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दिल्ली ने चीनी निर्यात दो सीजन पहले रोक दिया था और उसके बाद से वैश्विक बाजार में कीमतें बढ़नी शुरू हुईं। वैश्विक बाजार में यह भय हुआ कि भारत में घरेलू उत्पादन कम हो गया है। उस समय पाकिस्तानी बाजार को एक अवसर मिला था। भारत में 2006-07 सत्र में रिकॉर्ड 283.3 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था और उसके अगले साल भी 263.3 लाख टन चीनी का बंपर उत्पादन हुआ।
निर्यात बंद करने के गलत फैसले के चलते भी आज के संकट में अहम भूमिका निभाई। इसे व्यापक तौर पर देखे जाने की जरूरत है। अतिरिक्त उत्पादन और निर्यात के रास्ते बंद होने की वजह से घरेलू बाजार में अतिरिक्त चीनी हो गई और कुछ महीनों तक स्थिति ऐसी हो गई कि मिलों को इतने कम दाम पर चीनी की बिक्री करनी पड़ी कि उससे गन्ना खरीदने की लागत भी नहीं निकलती थी।
इसके साथ ही एक अन्य तथ्य भी महत्वपूर्ण रहा। कमोबेश सभी मिलें डिफाल्टर हो गईं और वे गन्ने का भुगतान करने में अक्षम साबित होने लगीं। हालांकि नियमों में स्पष्ट है कि चीनी उद्योग को 14 दिन के भीतर किसानों के बकाये का भुगतान करना है।
एक ऐसी भी स्थिति आई कि मिलों पर गन्ने का बकाया बढ़कर 9000 करोड़ रुपये हो गया। सरकार के पास कोई विकल्प नहीं था, जिससे उद्योग को बचाने के लिए वह अपनाए। सभी मिलों की बैलेंस शीट खतरे के निशान पर थी। उद्योग के अधिकारी ओम धानुका कहते हैं कि किसान इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्हें गन्ने का दूसरा विकल्प मजबूरी में चुनना पड़ा।
धानुका ने कहा, 'न केवल गन्ने की बुआई का क्षेत्रफल 2006-07 के 5.515 मिलियन हेक्टेयर से गिरकर पिछले साल 4.395 मिलियन हेक्टेयर रह गया, बल्कि उद्योग जगत को इस समय चीनी के अन्य विकल्पों को तलाशना पड़ा। इसमें एक बुराई और जुड़ गई कि 2009 में मौसम बहुत खराब रहा।'
लेकिन इस समय चीनी के दाम ज्यादा हैं। साथ ही किसानों को लाभकारी मूल्य मिलने के अधिकार का हर राजनीतिक दल समर्थन कर रहा है। इन सब तथ्यों से एक बार फिर किसानों को गन्ने का रुख करने का प्रोत्साहन मिला है। लेकिन किस्मों के मुताबिक गन्ने की फसल तैयार होने में 12-15 महीने समय लगता है।
इस समय जो स्थिति है, उसका गन्ना उत्पादन में फायदा 2010-11 सत्र में नजर आएगा, जब हमारा चीनी उत्पादन 240 लाख टन हो जाएगा और उस समय आयात गायब हो जाएगा। ब्राजील में सितंबर और दिसंबर में हुई भारी बारिश की वजह से गन्ने की फसल खराब हो गई है, इसका फायदा हमें 2010-11 (मई से अप्रैल) सत्र में मिलेगा।
अब उम्मीद की जा रही है कि इस दौरान भारत में बंपर उत्पादन होगा और करीब 5900 लाख टन गन्ने का उत्पादन इस दौरान हो सकता है। गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट में कहा गया है, 'चीनी की रिकॉर्ड कीमतों की वजह से ब्राजील में अगेती किस्म की फसल का उत्पादन मार्च में हो सकता है, जो सामान्यतया मई में होता है।' इंटरनैशनल शुगर आर्गेनाइजेशन का कहना है कि अगले सत्र में चीनी का उत्पादन कुल मांग की तुलना में 10 लाख टन ज्यादा हो सकता है।
कुल मिलाकर इसका मतलब यह है कि आम लोगों को चीनी की अनपेक्षित कीमतों का भुगतान करना पड़ रहा है। नए सत्र में ब्राजील की चीनी बाजार में होगी और 2010 के पहली छमाही के दौरान कीमतें उफान पर ही रहेंगी। कृषि जिंस के ज्यादातर विश्लेषकों का यह मानना है कि आईसीई वायदा कम होकर 17 सेंट प्रति पाउंड तक आएगा। (बीएस हिन्दी)

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