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25 फ़रवरी 2010

बजट में मेरे लिये क्या

नई नवेली सरकार का नया बजट आ गया। सरकार में शामिल धुरों ने इसे अच्छा कहा, स्वभावत: विपक्ष ने इसे जन विरोधी कहा। उद्योग जगत तो इस बजट से खासा नाराज है। यह स्वावाभिक प्रतिक्रियायें बजट आने के कुछ घंटों मे ही शुरू हो जाती हैं और लगभग स्वत: ही खत्म। टीवी के लालू-भालू चटखारे भी पानी के बुलबुलों ही तरह खत्म हो जाते हैं। अखबार और टीवी चैनल जिनसे त्वरित टिप्पणी लेते हैं उन्हें बजट का ''ब'' नहीं मालूम होता है और टीवी पर चंद सैकंड दिखने की लालसा कभी उन्हें बजट के पक्ष में खड़ा कर देती है तो कभी इतर विपक्ष में । वास्तव में यह देश की विडंबना ही है आजादी के कि साठ वर्षों बाद भी लोगों को बजट का ''ब'' भी नहीं समझ आया। लेकिन लोगों का बजट के पक्ष में बनने वाले इस मानस में विश्ले'षण की गुंजाईश बची रहती है। अलग-अलग वर्गों का विश्लेमषण, यानी किसके लिये क्या?
अब तो यह साबित हो ही गया कि शेयर बाज़ार समता मूलक विकास के पक्ष में नहीं है. 2009-10 के बजट में सरकार ने थोडी ज्यादा पहल गाँव के लिए कर दी तो बाज़ार धडाम से गिर गया। बाज़ार के बैल (बुल्स मार्केट) की सांस फूल गई। वह नाराज़ है कि प्रणब मुखर्जी ने गाँव और गाँव के लोगों की तरफ क्यों देखा। हम पिछले 15-20 सालों से देख रहे हैं कि जब भी गरीबी या सामाजिक क्षेत्रों की बात होती है तो सेंसेक्स गिरा कर शेयर बाज़ार अपना गुस्सा दिखता है. इसका एक मतलब यह भी है कि वर्तमान उद्योगिक संरचनाएं और उच्चस्तरीय घराने किसी भी बजट को अच्छा तभी मानेaगे जब उनके लिए सरकार करों में खूब छूट दे रियायत दे और सरकारी खजाने का दरवाजा उनके लिए खोल दे। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह बजट विकास विरोधी होता है। आश्चकर्यजनक है कि 20 सालों की निजीकरण के प्रक्रिया के बाद मंदी के नाम पर अंततः सरकार को ही पूरी अर्थव्यस्था को संभालना पड़ रहा है । हर उद्योग बड़े अधिकार के साथ यह मांग हर रहा है कि उन्हें बैल आउट पैकेज मिले यानी उनके कम होते लाभ को सरकार अपने खजाने से धन दे कर फिर बढाए। अब सवाल यह है कि जब आप पहले ही करों में छूट ले चुके है सरकार की लाखों एकड़ जमीनें मुफ्त या कौडियों के भाव अपने अंटे में कर चुके हैं तो अब फिर और लुटाई क्यों करना चाहते हैं। मतलब साफ़ है कि बाज़ार के लाभ कमाने का लालच अब एक किस्म कि आर्थिक हिंसा के स्तर पर जा पहुंचा है।
ऐसा भी नहीं हैं कि सरकार ने पwरे बजट को वंचितों को सौंप दिया हो। इस बजट में सड़कों के निर्माण के लिए बजट में 23 फीसदी की बढोतरी हुई है। और सरकार का कहना है कि वह हर रोज़ 20 किलोमीटर सड़कें बनाएगी। इससे विकास तो होगा पर साथ ही सीमेंट, इस्पात, स्टील, निर्माण क्षेत्र और अन्य उत्पादों के बाज़ार में भी तो सरकार के 50 हज़ार करोड़ रूपए आयेंगे। यह बड़ी कंपनियों को पता है पर वह अपनी ख़ुशी जाहिर नहीं करना चाहते हैं। ख़ुशी छिपा कर खुश होना और अपने हितों के लिए सरकार पर दबाव बनाते रहना वास्तव में बाज़ार की कंपनियों से सीखना चाहिए, इसीलिए तो प्रबंधन के पढाई इतनी महंगी है और ऐसी रणनीतियां सिखा कर ही तो विशेषज्ञ तैयार किये जाते हैं।
प्रणव मुखर्जी ने बंगाल के जादू वाला पिटारा तो सभी के लिये खोला लेकिन यह बजट बच्चों को नहीं रिझा पाया। वैसे भी आम आदमी वास्तव में विकास के लिए नहीं बल्कि वोट के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। वर्ष 2004 के चुनावों के बाद से यह बात बार बार सिद्ध हो रही है। कांग्रेस को एक मंत्र मिल गया है - कुछ चुटुर-पुटुर (30-40 हज़ार करोड़) कार्यक्रम लोगों के लिए चलाओ और उन्हें लॉलीपॉप देकर बड़े सौदे करते जाओ। रणनीतिगत् तरीके से इस बजट में भी सभी वर्गों के लिये लॉलीपाप तो है, लेकिन जो वर्ग वास्तव में लॉलीपाप का हकदार है, उसे हाजमे की गोली दे दी गई। हम बात कर रहे हैं इस बजट में बच्चों की।
बात 6 वर्ष तक के बच्चों के समग्र विकास की करें तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह एक ओर तो बच्चों में कुपोषण के मुद्दे को राष्ट्रीय शर्म निरुपित कर चुके हैं। लोकसभा के चुनावों में भी सोनिया जी राहुल भैय्या और मनमोहन सिंह जी ने चुनावी सभाओं में कुपोषण पर सघन अभियान चलाने का वायदा किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने आई सी डी एस के लोकव्यापीकरण के आदेश दिए हैं यानी हर बच्चे और हर बसाहट के लिए आंगनवाडी केंद्र होना चाहिए। सरकार ने भी कहा कि हाँ हम ऐसा करेंगे, परन्तु बजट में यह परावर्तन दिखता नहीं है। महिला एवं बाल विकास के बजट में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि की गई है. जिससे ना तो आईसीडीएस का लोकव्यापीकरण हो पायेगा न कुपोषण की रफ़्तार कम हो पायेगी। सरकार अब भी यह नहीं समझ रही है कि भारत में कुपोषण के कारण विकास की दर 2-3 प्रतिशत कम रह जाती है यदि इस संकट पर काबू पाया जा सके तो देश के विकास की गति और तेज़ हो जायेगी। पर नहीं शायद कुपोषण को बनाए रखना भी बाजारवादी विकास की एक रणनीति है।
स्कूली शिक्षा की बात करें तो सरकार शायद यह तय कर चुकी है कि गुणवत्तापूर्ण एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा के लिये निजीकरण के रास्ते खोल देना चाहिए। इसका परावर्तन बजट में दिखता है कि सरकार ने विगत वर्ष के बजट में 26800 करोड़ रूपये के प्रावधान में एक भी रूपये का इजाफा नहीं किया है। यहां तक कि सर्व शिक्षा अभियान में एक भी रूपये की बढ़ोतरी नहीं की गई है। जबकि इसी संप्रग सरकार ने अपने विगत कार्यकाल में शिक्षा पर 6 प्रतिशत तक खर्च करने की बात कही थी, लेकिन अभी भी वह कोसों दूर है। सरकार बार-बार अपनी प्रतिबध्दता तो जाहिर करती है लेकिन यदि सरकार प्रतिबध्द है तो फिर सरकार ने शिक्षा के अधिकार वाले कानून के लिए बजट का आवंटन क्यों नहीं किया। शायद इसलिए इस बच्चे वोट तो देंगे नहीं और सरकार का खर्चा करवा देंगे।
वर्ष 2004 के चुनावों में नरेगा का वायदा किया गया और उे लागू करने का फायदा बार-;बार कांग्रेस को मिला। इस बार उन्होंने खाद्य सुरक्षा अधिनियम का वायदा कर दिया और चुनाव जीत गए। अब कांग्रेस सरकार यह अधिनियम बनाने की जल्दी में है, क्योंकि वोट का मामला है और अब कुछ राज्यों में विधान सभा चुनाव भी होने ही जा रहे हैं. इस बात में थोडी शंका है कि कांग्रेस सरकार भुखमरी और गरीबी के प्रति बहुत प्रतिबद्ध है। इसी बजट भाषण में सरकार ने खाद्य सुरक्षा बिल को भी लाने की बात तो कही है, क्योंकि इसमें एक बड़े वर्ग (सरकार के वोट बैंक का ज्यादा) का हित सधता है, लेकिन विगत दो पंचवर्षीय से अटके शिक्षा बिल को लाने के संबंध में इस बजट में कहीं जिक्र भी नहीं किया है। यह सरकार की प्राथमिकताओं को प्रदर्शित करता है कि अनिवार्य एवं मूलभूत शिक्षा किस पायदान पर है।
क्षेत्र/विभाग
2008-09 (करोड़ में)
2009-10 (करोड़ में)
महिला एंव बाल विकास विभाग
7200
7350
स्कूल शिक्षा विभाग
26800
26800
आदिवासी विकास विभाग
805
805
उच्च शिक्षा
7600
9600
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
15580
18380
समाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण
2400
2500
रक्षा
105600
141703
मध्यान्ह भोजन
8000
8000
सर्वशिक्षा अभियान
13100
13100
जेएनएनयूआरएम

12887 (विगत वर्ष की तुलना में 87 प्रतिशत् अधिक)
तालिका - कुछ चुनिंदा विभागों / क्षेत्र में बजट आवंटन
आदिवासी विकास पर सरकार ने इस बजट में एक भी रूपये की बढ़ोत्तरी नहीं की है, जबकि हम सभी जानते हैं कि बच्चों के संबंध में बहुत सी योजनायें आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी शिक्षा, समेकित बाल विकास सेवा, मध्यान्ह भोजन योजना आदि पर भी आदिवासी विकास से राशि खर्च होती है लेकिन सरकार ने इस पर कुछ भी बढ़ोत्तरी नहीं की है। सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण की दिशा में भी केवल 100 करोड़ रूपये की बढ़ोतरी यह दर्शाती है कि शासन की मंशा क्या है।
देश में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के सर्वेक्षण ने चिल्ला-चिल्लाकर देश की स्वास्थ्य के खस्ता हालत से हमें परिचित कराता रहा है।
भारत में स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए नागरिकों के सबसे ज्यादा खर्च करना पड़ता है। सरकार स्वास्थ्य कार्यक्रम तो चला रही है पर इसे संवैधानिक अधिकार का दर्जा नहीं दे रही है। यही कारण है जिससे हमारा स्वास्थ्य ढांचा बेहद लचर कमज़ोर और अप्रभावी बन गया है। जरूरी है कि बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य के सन्दर्भ में बी पी एल जैसे सूचकों को हटा कर स्वास्थ्य सेवाओं का व्यापक सार्वजनिकीकरण किया जाए। सरकार ने तो इस बजट में भी लगभग 300 करोड़ रूपये की बढ़ोत्तरी की है। इसमें से भी अधिकांश पैसा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को जाने वाला है जिसमें अधिकांश रूप से लक्षित हितग्राही हैं लेकिन जन सामान्य के लिये क्या है, यह कहीं भी परिलक्षित नहीं होता है।
दरअसल में पूरा बजट का केन्द्रीय विश्लेहषण यह कहता है कि उसके केन्द्र में बच्चा तो कहीं भी नहीं है। सरकार का बजट स्पीच ही इससे शुरू होता है कि 9 फीसदी विकास दर हासिल करना सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है। लेकिन कमजोर एवं वंचित तबके का विकास शासल की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं दिखता है।
सरकार ने हर बार की तरह इस बार भी देश की रक्षा के लिए बजट 105600 से बढाकर 141703 दिया है और यह खुला हुआ है। हम यह नहीं कहते कि यह नहीं होना चाहिए लेकिन सवाल यह है कि बच्चों की आधी से ज्यादा आबादी कुपोषित है। लोग भुखमरी के साये में जी रहे हैं और सरकार अपनी प्राथमिकता रक्षा को बना रही है।
दरअसल में पूरा बजट का केन्द्रीय विश्लेिषण यह कहता है कि उसके केन्द्र में बच्चा तो कहीं भी नहीं है। सरकार का बजट स्पीच ही इससे शुरू होता है कि 9 फीसदी विकास दर हासिल करना सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है। लेकिन कमजोर एवं वंचित तबके का विकास शासन की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं दिखता है।
सरकार ने हर बार की तरह इस बार भी देश की रक्षा के लिए बजट 105600 से बढाकर 141703 दिया है यह यह खुला हुआ है। हम यह नहीं कहते कि यह नहीं होना चाहिए लेकिन सवाल यह है कि बच्चों की आधी से ज्यादा आबादी कुपोषित है। लोग भुखमरी के साये में जी रहे हैं और सरकार अपनी प्राथमिकता रक्षा को बना रही है।
पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग में सरकार ने बढ़ोत्तरी तो की है और उसके भी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) में 30 फीसदी की वृध्दि की है, इसके मायने यह नहीं कि सरकार ''हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम'' की मंशा रखती है बल्कि यह पूर्ण योजना गांव के एक बड़े वर्ग (युवा, महिला, वृध्द, पुरूष) की आस बंधाती है क्योंकि यह जरूरी भी नहीं है कि सभी को काम मिल ही जाये। यह बड़ा वर्ग ही सरकार का वोट बैंक है।
विगत् पांच दशकों के चुनावी वातावरण और बजटों का विश्ले षण करें तो हम पाते हैं कि विगत दशक या दो पंचवर्षीय में खाद्य सुरक्षा, के सवालों को तरजीह देना शुरू हुआ है, क्योंकि इस दशक में ही न्याय पालिका ने अपना पक्ष सुनिश्चित करते हुये सरकार को बाध्य किया है। यह करने के साथ ही खाद्य सुरक्षा का सीधा मामला, जिले आजकल 1 रूपये किलो गेहूं और 2 रूपये किलो चावल के रूप में बदला जा रहा है। यह लोगों को प्रत्यक्ष रूप से आलसी बनाये रखने की साजिश है। इससे लोग आलसी हो रहे हैं बजाए इसके कि नरेगा में न्यूनतम मजदूरी को बढाया जाये और लोगों की वित्तीय क्षमता बढ़ाई जाये। लेकिन सीधे रूप से यह मसला एक बड़े समूह को साधने का है और यह जताने का है कि हमने तुम्हारे लिए क्या किया और फिर इन्हीं जुमलों को परिवर्तन की लहर बनाया जाता है।
सवाल जस का तस है कि बजट में या हर तरह की शासन की प्राथमिकताओं में बच्चों को तरजीह नहीं दी जाती है क्योंाकि बच्चे वोट बैंक नहीं हैं और वे सरकार का तख्ता नहीं पलट सकते हैं। इसलिये हमें यह देखना और समझना होगा कि बच्चे कब शासन की जिम्मेदारी और प्राथमिकता में होंगे। सरकार को चाहिये कि पहले बुनियाद को साधे नहीं तो उसके बगैर कोई भी विकास रुपी ईमारत खड़ी नहीं हो सकती है। (मीडिया फॉर रिघ्ट्स)

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