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16 सितंबर 2011

संकट को अनुमति

सफेद सोने के विदेशी बीजों से किसानों के जीवन में अंधेरा देश में कपास बीज की बीटी किस्मों से किसानों और खेती के संकट चरम पर





पेटलावद के किसान जयंतीलाल सेप्टा ने तीन साल पहले स्थानीय बीज विक्रेता की सलाह पर कपास का विदेशी जीन परिवर्धित बीज बोना शुरू किया था कि इससे कपास की पैदावार दो गुनी हो जायेगी और फसल को नुकसान पहुंचाने वाली डेंडू छेदक इल्ली (बॉलवार्म) का प्रकोप भी कम होगा। पहले साल तो यह दावा उन्हें सच ही लगा क्योंकि तब खेत में सफेद सोना लहलहा गया था, दूसरे साल उन्हें उतना लाभ नहीं हुआ तो हानि भी नहीं हुई, परन्तु तीसरे साल सपने टूटते ही नजर आये क्योंकि डेंडू छेदक इल्ली ने अमेरिका से आयातित इस बीज के तत्वों से लड़ने की क्षमता विकसित कर ली। बहुराष्ट्रीय कम्पनी मोनसेंटो ने बीटी कपास में जैव तकनीक से ऐसे तत्व (जीन) प्रवेश करा दिये हैं जो जहरीले होते हैं और जब यह बीज फसल का रूप लेते हैं तो हर हिस्से में जहर का प्रसार हो जाता है। इस तरह के तत्व बीज में डालने का मकसद बॉलवार्म (डेंडू इल्ली) से फसल को बचाना रहा है ताकि किसानों को मनमाने दामों पर यह बीज बेंचा जा सके। इस परिस्थिति में व्यापक स्तर पर बीटी कपास के बीजों के फायदे के मिथ्या प्रचार में किसानों का भी उपयोग किया गया। झाबुआ के जामली गांव के लच्छीराम के एक एकड़ के खेत में 4 क्विंटल कपास हुआ परन्तु जब कम्पनी ने रंगीन विज्ञापन छपवाया, तब उसमें यह बताया गया कि लच्छीराम के यहां एक एकड़ में पन्द्रह क्विंटल की पैदावार हुई है। इसी तरह धार के दसई गांव के कन्हैयालाल पाटीदार के यहां सात क्विंटल के बजाये 23 क्विंटल का उत्पादन दिखाया गया। राजौद में तो एक पान के विक्रेता को ही किसान के रूप में पेष कर दिया गया।
बीटी कपास यानि क्या ?
• बीटी कपास जैनेटिक ढंग से तैयार की गई कपास है इसमें ऐसे जीन्स शामिल किए गए हैं जो मिट्टी में पाये जाने वाले बैक्टीरियम से लिए गए हैं। बीटी कपास में इस तरह के तत्व पाये जाते हैं जिनमें भारी मात्रा में नशीली चीजें पायी जाती हैं और जब इसकी फसल तैयार होने लगती है तो पौधे के हर भाग में वह नशीली चीज फैल जाती है। इसत तरह की नषीली चीज डालने का असल मकसद यह है कि बाल वार्म नामक कीटाणू से पौधे को बचाया जाय। ये कीटाणू कपास में बहुतायत में पाये जाते हैं। ...... बाल वार्म इसके प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। उससे अति विकसित कीट बनते हैं और कीटनाशक का अधिक छिड़काव करना किसानों की लागत बढ़ाता है। • .... आर. एफ. एस. टी. आई. ने महाराष्ट्र , मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में जो अध्ययन किया उससे पता चला कि मानसेन्टो का कपास अमेरिकी बाल वार्म से पौधों का बचाव नहीं करता और फसल पर जेसिड्स, ऐफिड्स, सफेद मक्खी और कीट पतंगों जैसे गैर-लक्षित कीट के हमने भी 250 से 300 प्रतिशत बढ़ गये। इसके अलावा बीटी पौधे जड़ में सड़न की बीमारी के भी शिकार हुए।
- नवधान्य की पुस्तिका 'कृषि व किसानों का विकास या विनाश?'
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किस कदर अब गांव की खेती-बाड़ी की व्यवस्था को घ्वस्त कर रही हैं इसकी तस्वीर अब मालवा-निमाड़ के कोने-कोने में नजर आने लगी है। जहां एक ओर उदारीकरण की नीतियों के अन्तर्गत किसानों को राज, समाज और बाजार में किसी का भी संरक्षण नहीं मिल रहा है तो वहीं दूसरी ओर औद्योगिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की राह में नीति बनाने वाले पलक पांवड़े बिछाये बैठे हैं। तमाम विरोधों के बावजूद भारत सरकार की जैनेटिक इंजीनियरिंग अनुमति समिति ने आंध्र प्रदेश को छोड़कर देश के सभी राज्यों में बी.टी. कॉटन बीजों के उपयोग की अनुमति दे दी। आंध्र प्रदेश सरकार ने किसानों की आत्म हत्या के बाद इन बीजों के उपयोग का विरोध किया था। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश सरकार ने इसके उपयोग की अनुशंसा की। यह अपने आप में बहुत विरोधाभासी स्थिति है कि जिस बीज के उपयोग के कारण एक राज्य में किसान आत्म हत्या कर रहे हों उसी बीज से दूसरे राज्य में खुशहाली कैसे आयेगी। रिसर्च फाउण्डेशन फॉर टेक्नोलॉजी, साइंस एण्ड इकोलॉजी के अध्ययन से पता चलता है कि महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में पंधारकावदा तहसील के बोयथ गांव में रामकृष्णपति को पचास एकड़ क्षेत्र में बोये बीटी कपास पर बालवार्म नियंत्रण के लिए दो बार और फिर कीटो को नष्ट करने के लिए सात बार छिड़काव करना पड़ा। एक एकड़ में कीट नाशक के छिड़काव पर एक बार में सात सौ रूपये का खर्च आता है। संकट की इस तेज रफ्तार को रोकना होगा क्योंकि कपास तो एक अखाद्य फसल है और जिस तरह से मक्का जैसी खाद्यान्न फसल के लिए बीटी बीजों के उपयोग की तैयार चल रही है यदि वह क्रियान्वित हुई तो इससे जीवन के लिए संकट खड़ा हो जायेगा।
आज से ठीक तीन साल पहले सरकार ने विवादित तकनीक के जरिये बदले गये चरित्र वाले बीजों के उपयोग को अनुमति देकर किसानों के लिये एक नये संकट की शुरूआत कर दी थी। अब तक कृषि एक पारम्परिक व्यवस्था का हिस्सा रही है जिसमें किसान अपने ही उत्पादन में से सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ताा वाले दानों को संरक्षित कर उनका बीज के रूप में उपयोग करता रहा। उसे बीज खरीदने के लिये कभी बाजार का रूख नहीं करना पड़ा। परन्तु भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में इन कम्पनियों को खेती के बाजार पर कब्जा जमाने का अवसर मिलने लगा। वर्ष 2002 में भारत सरकार की जैनेटिक इंजीनियरिंग अनुमति समिति ने सुप्रीम कोर्ट में मामला लम्बित होने और पर्यावरण के तमाम विवादों के बावजूद जीन परिवर्धित बीजों को खेतों में उपयोग करने की अनुमति देकर संकट को वैधानिक रूप से संरक्षण प्रदान कर दिया। अमेरिकी कम्पनी मोनसेन्टो ने भारतीय कम्पनी महिको के साथ माहिको-मोनसेंटो बायोटेक इंडिया लिमिटेड कम्पनी बनाई और तीन किस्म के कपास बीजों को बाजार में उतारा। शुरूआती दौर में किसानों ने इन नये जैव तकनीक से बने बीजों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। तब आक्रामक और भ्रामक प्रचार के जरिये इस दावे को गांव-गांव तक पहुंचाया कि इन तीन किस्म के बीजों की फसल को डेंडू छेदक इल्ली (बोलवर्म) किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकेगी और किसानों को कीटनाशकों पर व्यय नहीं करना पड़ेगा। अब तक किसानों के अपने बीजों से 7 से 8 एकड़ कपास का उत्पादन होता रहा है परन्तु बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापनों में दावा किया कि प्रयोगशाला में तैयार इन बीजों से उत्पादन 14 से 16 क्विंटल प्रति एकड़ हो जायेगा। इस प्रक्रिया में सबसे पहले तहसील और गांवों के स्तर पर कृषि सामग्री के विक्रेताओं के मानस को ज्यादा कमीशन के जरिये परिवर्तित किया गया। यही विक्रेता गांव के किसानों के सतत सम्पर्क में रहते हैं और छोटे किसानों को कर्ज देते रहे हैं। ऐसे में उनकी सलाह पर किसानों ने घ्यान देना शुरू किया और पहली बार इन बीटी कपास के बीजों का उपयोग किया। शुरूआती वर्ष में तो उन्हें फायदा हुआ परन्तु दूसरे वर्ष फायदेमंद मानसून होने के बावजूद जब मैक-12, मैक-162 और मैक-184 बीटी की बुआई की तो जल्दी ही उनकी उम्मीदें और सपने ध्वस्त हाने शुरू हो गये। यूं तो कम्पनी का दावा यह था कि डेंडू छेदक इल्ली (बॉलवर्म) इसको कोई नुकसान पहुंचा नहीं सकेगी परन्तु झाबुआ के रायपुरिया के किसान मांगीलाल पाटीदार उन हजारों किसानों में से एक हैं जिन्हें फसल बचाने के लिये चार से पांच बार कीटनाशक का छिड़काव करना पड़ा। इसके बावजूद भी उन्हें 2.17 क्विंटल कपास की पैदावार मिली जबकि गैर-बीटी कपास बीज बोने वालों का उत्पादन 2.57 क्विंटल प्रति एकड़ रहा। यहां अंतर केवल मात्रा का ही नहीं है बल्कि इस कपास की गुणवत्ताा भी अच्छी नहीं रही जिसके कारण उनहें बाजार में कम फसल के साथ-साथ 40 फीसदी कम दाम भी मिला। बीज स्वराज अभियान के ताजा अध्ययन से पता चला कि छोटी जोत होने के कारण 95 फीसदी बीटी कपास उगाने वाले किसान कम्पनी के इस निर्देश का पालन नहीं करते हैं कि बीटी कपास के साथ-साथ खेत के किनारे के 20 फीसदी हिस्से में गैर बीटी कपास बोना जरूरी है और इन परिस्थितियों में पर-परागण (क्रॉस पालीनेशन) के कारण होने वाले जीन हस्तांतरण से जैविक प्रदूषण का खतरा बढ़ गया है। बाबूलाल पाटीदार को कपास में तो घाटा हुआ ही परन्तु संकट यहीं समाप्त नहीं हुआ और जब उन्होनें उसी खेत में गेहूं बोया तो उसके पौधे हरे न होकर पीले होते गये और दाना छोटा होने के कारण उसके कोई दाम नहीं रह गये। किसानों की दुखदायी कहानी कई हिस्सों में बंटी हुई है। हर कोई कहता है कि 450 ग्राम बीज के पैकेट इस बार बाजार में दो हजार रूपये का मिला क्योंकि दूसरी किस्म के बीज मौके पर दुकानों से हटा लिये गये और सरकार की नजर इस कालाबाजारी पर पड़ी ही नहीं।
यह तो किसान की कहानी थी उन्हीं की जुबानी। जब हम देश और प्रदेश के स्तर पर विश्लेषण करते हैं तो स्थिति की भयावहता और स्पष्ट हो जाती है। वर्ष 2002 बीटी कपास के बीज की परम्परा आने के ठीक दो साल पहले मध्यप्रदेश में 170 किलो की 4.16 लाख गांठों का उत्पादन हुआ था, तब एक हेक्टेयर में 442 किलो कपास का उत्पादन होता था परन्तु बीटी कपास का उपयोग शुरू होने के दूसरे साल बाद ही प्रदेश में यह उत्पादन घट कर 3.79 लाख गांठ और 350 किलो प्रति हेक्टेयर पर आ गया। इसके विपरीत भारत सरकार के पर्यावरण और जैव प्रोद्योगिकी विभाग ने बायोटैक कन्सोर्टियम इण्डिया लिमिटेड के साथ मिलकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुचाने के उद्देश्य से खूब प्रसार कर यह बताया कि वर्ष 2004 में देश भर में बीटी कपास के 13.10 लाख पैकेट बेचे गये हैं जो कि वर्ष 2003 से छह गुना अधिक है, यानी किसानों की बर्बादी भी इतनी ही रफ्तार से बढ़ रही है। वर्ष 2003 में 1.25 लाख किसानों ने बीटी कपास बोया था जबकि 2004 में यह संख्या बढकर 6.18 लाख हो गई। मध्यप्रदेश (2.20 लाख पैकट) गुजरात (3.30 लाख पैकेट) और महाराष्ट्र (5.10 लाख पैकेट) इस घातक तकनीक से बने बीज का उपयोग करने वाले राज्य है। बीज का उपयोग छह गुना बढ़ा है परन्तु कपास का उत्पादन कम हुआ है और किसानों की लागत बढ़ने से घाटा भी बढा है। अब तो बाजार में बीटी कपास के दाम भी देशी कपास से 33 फीसदी कम मिल रहे हैं। बीटी कपास की भारत में यात्रा • भारत में विदेशी तकनीक से बना बीज आयात करने का आवेदन - अक्टूबर 1994 • आयात की अनुमति भारत सरकार ने दी - मार्च 1995 • आयात शुरू हुआ - वर्ष 1996 • प्रयोगशाला और एक सीमित क्षेत्र में प्रयोग शुरू - वर्ष 1996-97 • 5 सीमित क्षेत्रों में प्रयोग - वर्ष 1997-98 • बीज में मौजूद विशैले तत्वों का आई.टी.आर.सी. लखनऊ द्वारा अध्ययन - वर्ष 1997-98 • भारत सरकार की जैनेटिक इंजीनियरिंग अनुमति समिति ने तीन बीटी हाईब्रिड किस्मों के बीज की व्यापार की तीनवर्ष की अवधि के लिए अनुमति दी। यह अनुमति आंध्रप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेष, महाराष्ट्र और तमिलनाडु राज्यों के लिए दी गई - वर्ष 2002 • तीन उत्तरी राज्यों पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में महिको, रासी और अंकुर बीज कम्पनी के तीन किस्मों के बीजों के व्यापारी उपयोग की अनुमति भारत सरकार ने दी ये तीनों कम्पनियां मानसेंटो से सम्बध्द हैं - 4 मार्च,2005 • नकारात्मक अनुभवों के बावजूद बीटी किस्म के बीजों के व्यापार की पुन: अनुमति दी गई - 3 मई 2005 • आंध्रप्रदेश सरकार के विरोध के बाद बीटी किस्मों के बीजों के उपयोग पर केवल उसी राज्य में प्रतिबन्ध लगा - 3 मई 2005 बीटी से सम्बन्धित अध्ययनों के मुख्य निष्कर्ष • वर्ष 2002 में बीटी किस्म के कपास बीजों की अनुमति देने के साथ ही अनुमति समिति ने मध्यप्रदेश के खण्डवा जिले के कसानों का अध्ययन कर भविष्य में बीज की असफलता के संकेत दे दिये थे। • आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले में इसके उपयोग के कारण खेती की लागत बढ़ी और किसान भारी कर्जे में डूब गये। डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी ने इस बर्बादी को सिध्द किया। • आल इण्डिया कोआर्डीनेटेड कॉटन इम्प्रूवमेंट प्रोजेक्ट ने वर्ष 2004-2005 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि बीटी बीज बीमारियों से मुक्त नहीं हैं और यह दावा गलत है कि उस पर कीटों का प्रभाव नहीं पड़ता है। • बीज स्वराज अभियान से जुड़ी संस्थाओं सम्पर्क और वास्प्स ने मध्यप्रदेश में कपास उत्पादक किसानों के साथ सहभागी अध्ययन कर सिध्द किया कि इससे न केवल किसानों को घाटा हो रहा है बल्कि भारतीय कृषि व्यवस्था को आघात पहुंचाने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कम्पनियां प्रचार के उग्र तरीके अपनाकर किसानों को आतंकित भी कर रही हैं। • जीन कैम्पेन ने भी अपने अध्ययन से सिध्द किया कि बीटी किस्में कृषि व्यवस्था और पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं।
हम आंध्रप्रदेश के महबूब नगर और बारंगल जिलों के हालात से वाकिफ हो ही चुके हैं जहां हजारों किसान बीटी कपास को अपना जीवन भेंट कर आत्म हत्या कर चुके हैं। और इस पर सरकार ने बयान दिया है कि किसान घाटे के कारण नहीं बल्कि बीमा का लाभ लेने के लिये आत्महत्या कर रहे हैं। मध्यप्रदेश भी इसी अनुभव को दोहराने जा रहा है क्योंकि अब जेनेटिक इंजीनियरिंग अनुमति समिति विनाशकारी अनुभवों के बावजूद नये सिरे से 10 बीटी बीजों की किस्मों को खेत में उपयोग करने के लिए बाजार में बेचने की अनुमति देने जा रही है। यह तय है कि सरकार किसान और पर्यावरण विरोधी नीति बनाकर उसके दुष्प्रभावों को स्वीकार करना ही नहीं चाहती है। या तो वह बाजार के भारी दबाव में है या फिर किसान हित से ज्यादा निजी हित का उन पर प्रभाव है। और निश्चित रूप से तमाम नकारात्मक अनुभवों के बावजूद कृषि विश्वविद्यालय के गोपनीय अध्ययन के आधार पर वह जल्दी ही इन घातक बीजों के पुन: भविष्य में उपयोग के लिये अनुमति प्रदान करने जा रही है। जनप्रतिनिधियों को यह महसूस करना होगा कि भारत के खेत और किसान विनाशकारी तकनीकों की प्रयोगशाला बन गये हैं, अन्यथा उनकी भूमिका बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में बंधी कठपुतली से कुछ ज्यादा नहीं होगी। भारत सरकार का चिंतनीय रूख
• तमाम अध्ययनों, जनसंगठनों के विरोध और किसानों की आत्महत्या के मामलों को नजरअंदाज करते हुए 3 मई 2005 को जैनेटिक इंजीनियरिंग अनुमति समिति ने आंध्रप्रदेश को छोड़कर अन्य 5 राज्यों में बीटी कपास के व्यापार की फिर अनुमति दे दी। • आंध्रप्रदेश सरकार ने भारी दबाव में इन बीजों के विरोध में अपनी रिपोर्ट समिति को भेजी। अन्य चार राज्यों, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र ने मिश्रित रिपोर्ट भेजी यानि विरोध नहीं किया। गुजरात ने अपनी रिपोर्ट समिति को भेजी ही नहीं। • चार राज्यों की मिश्रित रिपोर्ट के कारण भी समिति ने वहां मैक-12, मैक-162, मैक- 184 बीटी किस्मों के बीजों के व्यापार और उपयोग की अनुमति दे दी। • यह एक विरोधाभासी स्थिति है कि सभी राज्यों में किसानों को नुकसान पहुंचाने वाले बीजों के उपयोग पर केवल आंधप्रदेश में प्रतिबंध क्यों है और अन्य राज्यों में इसके उपयोग की अनुमति क्यों? (Media for rigths)

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