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29 मई 2012

सरसों के बुवाई आंकड़ों में हेरफेर

आर.एस. राणा नई दिल्ली
कृषि मंत्रालय की घोषणा
20 जनवरी 2011-12 में सरसों की बुवाई 65.30 लाख हेक्टेयर में हुई जो पिछले साल की समान अवधि में 71.11 लाख हेक्टेयर थी
27 जनवरी सरसों की बुवाई वर्ष 2011-12 के दौरान 65.41 लाख हेक्टेयर में हुई, जो पिछले साल की समान अवधि में 73.06 लाख हेक्टेयर थी
3 फरवरी 2011-12 में सरसों की बुवाई 65.77 लाख हेक्टेयर में हुई, जो पिछले साल की समान अवधि में 70.89 लाख हेक्टेयर थी

ऐसा नहीं कि सिर्फ आईआईपी और निर्यात के आंकड़े जारी करने में गड़बड़ी होती हो, कृषि उत्पादों के मामलों में भी कई बार ऐसा देखने को मिला है। रबी में सरसों के बुवाई आंकड़ों में हेरफेर की बात सामने आई थी। कृषि मंत्रालय द्वारा 27 जनवरी को जारी आंकड़ों के आधार पर रबी 2010-11 में सरसों की बुवाई 73.06 लाख हेक्टेयर में हुई थी लेकिन मंत्रालय ने 3 फरवरी को जारी आंकड़ों में इसे घटाकर 70.89 लाख हेक्टेयर कर दिया। ऐसे में सरसों की बुवाई में कमी का अंतर पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 7.64 से घटकर 5.12 लाख हेक्टेयर रह गया।


कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि फसलों की बुवाई के आंकड़े राज्यों के कृषि विभागों से प्राप्त होते हैं तथा मंत्रालय में उन्हें केवल सूचीबद्ध करके पेश किया जाता है।

ऐसे में आंकड़ों की गणना में चूक राज्य के कृषि विभाग से हुई है। कृषि मंत्रालय द्वारा 20 जनवरी को जारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011-12 में सरसों की बुवाई 65.30 लाख हेक्टेयर में हुई थी जो पिछले साल की समान अवधि के 71.11 लाख हेक्टेयर के मुकाबले 5.81 लाख हेक्टेयर में कम थी। राजस्थान में इस दौरान सरसों की बुवाई पिछले साल की समान अवधि के 32.10 लाख हेक्टेयर से घटकर 26.41 लाख हेक्टेयर में हुई।

इसके बाद मंत्रालय ने 27 जनवरी को जारी आंकड़ों में कहा कि सरसों की बुवाई वर्ष 2011-12 के दौरान 65.41 लाख हेक्टेयर में हुई जबकि पिछले साल की समान अवधि में बुवाई 73.06 लाख हेक्टेयर में हुई थी। ऐसे में बुवाई का अंतर बढ़कर 7.64 लाख हेक्टेयर का हो गया। राजस्थान में इस दौरान बुवाई पिछले साल के 32.45 लाख हेक्टेयर की तुलना में 26.41 लाख हेक्टेयर में हुई।

यहां तक तो सब कुछ ठीक था लेकिन खेल इसके बाद शुरू हुआ। तीन फरवरी को मंत्रालय द्वारा जारी आकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में बुवाई 65.77 लाख हेक्टेयर में दिखाई गई लेकिन पिछले साल के आंकड़ों में हेरफेर कर दिया। पिछले साल के आंकड़े 73.06 से घटाकर 70.89 लाख हेक्टेयर कर दिए।

ऐसे में आगे आंकड़ों में बढ़ोतरी न हो यह बात तो समझ में आती है लेकिन जनवरी के मुकाबले फरवरी में बुवाई आंकड़े कम हो जाये। ऐसा खेल तो कृषि मंत्रालय में ही हो सकता है। मंत्रालय साप्ताहिक आधार पर हर शुक्रवार को फसलों के बुवाई आंकड़े जारी करता है। (Business Bhaskar...............R S Rana)

स्टॉकिस्टों ने उठाया ग्वार गम में फायदा

ऐसे हुआ खेल 
ग्वार गम की कुल उपलब्धता करीब 6.50 लाख टन
एपीडा ने कहा, 8 माह में 6.70 लाख टन का निर्यात
इसका असर ग्वार सीड और ग्वार गम की कीमतों पर
15 फरवरी से 28 मार्च के दौरान कीमत दोगुनी बढ़ी
वायदा बाजार में कंपनियों ने जमकर चांदी काटी
बड़े ट्रेडिंग हाउसों, स्टॉकिस्टों ने उठाया इसका फायदा

ग्वार सीड और ग्वार गम के वायदा कारोबार में जिस समय कंपनियां आपसी गठजोड़ करके भारी मुनाफा कमा रही थीं, उस समय सरकार ने भी उनका बखूबी साथ निभाया। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधीन काम कर रहे कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने अप्रैल से नवंबर के दौरान ग्वार गम के निर्यात आंकड़े कुल हुए निर्यात से 2.41 लाख टन बढ़ाकर पेश किए थे। अप्रैल से नवंबर के दौरान कुल निर्यात 4.29 लाख टन का हुआ लेकिन एपीडा ने 7.60 लाख टन के आंकड़े जारी कर दिए।

एपीडा के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि उन्हें निर्यात के आंकड़े डायरेक्टर जनरल ऑफ कॉमर्शियल इंटेलीजेंस एंड स्टेटिक्स (डीजीसीआई एंड एस) उपलब्ध कराता है। हम केवल आंकड़ों को सूचीबद्ध करते हैं। अप्रैल से नवंबर के दौरान डीजीसीआई एंड एस ने ग्वार गम निर्यात के आंकड़े 6.70 लाख टन के उपलब्ध कराये थे।

इसलिए निर्यात के आंकड़ों में हेराफेरी एपीडा की तरफ से नहीं हुई है। उन्होंने बताया कि हमें तो आंकड़ों में गलती का पता अप्रैल से दिसबंर के आंकड़े आने के बाद चला। क्योंकि डीजीसीआई एंड एस ने अप्रैल से दिसंबर के दौरान ग्वार गम के 5.03 लाख टन निर्यात के आंकड़े पेश किए थे।

इसके बाद ही डीजीसीआई एंड एस ने ग्वार गम के अप्रैल से नवंबर के दौरान हुए सही निर्यात आंकड़े 4.29 लाख टन दिए गए। निर्यात आंकड़ों में बढ़ोतरी से वायदा बाजार में ग्वार सीड और ग्वार गम में कंपनियों ने जमकर चांदी काटी। इसका फायदा बड़े ट्रेडिंग हाउसों और स्टॉकिस्टों ने खूब उठाया। ग्वार सीड और ग्वार गम में कंपनियों ने अक्टूबर 2011 से मार्च 2012 के दौरान एनसीडीईएक्स पर कुल करीब 2,000 करोड़ रुपये का भारी मुनाफा कमाया।

चालू सीजन में देश में ग्वार सीड का कुल उत्पादन 1.50 करोड़ क्विंटल का हुआ जबकि 60 से 70 लाख क्विंटल का बकाया स्टॉक बचा हुआ था। एक क्विंटल ग्वार सीड से 30 किलो ग्वार गम बनता है। इस आधार पर ग्वार गम की कुल उपलब्धता करीब 6.50 लाख टन की ही बैठती है। लेकिन एपीडा ने वित्त वर्ष 2011-12 के पहले आठ महीनों अप्रैल से नवंबर के दौरान ही निर्यात आंकड़े बढ़ाकर 6.70 लाख टन पेश कर दिए। इसका असर ग्वार सीड और ग्वार गम की कीमतों पर पड़ा।

ग्वार सीड और ग्वार गम की कीमतों में 15 फरवरी से 28 मार्च के दौरान करीब दोगुनी बढ़ोतरी हुई। एनसीडीईएक्स पर जून महीने के वायदा अनुबंध में 15 फरवरी को ग्वार गम का भाव 49,171 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि 28 मार्च को भाव 82,540 रुपये प्रति क्विंटल हो गया।
इसी तरह से ग्वार सीड का भाव इस दौरान 14,531 रुपये से बढ़कर 25,810 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। (Business Bhaskar...........R S Rana)

जनवरी से फूड पैकेट पर मिलेगी 'जीएम' की सूचना

सरकार का कदम :- ज्यादातर जीएम फूड विदेशों से आयात होते हैं। इन बंद पैकेटों पर जीएम फूड होने की जानकारी अंकित नहीं होती है। इस वजह से उपभोक्ता इस तथ्य को लेकर अंधेरे में रहते हैं। इसीलिए उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान रखकर जीएम फूड के पैकेट पर इसकी जानकारी देने अनिवार्य होगा।

सरकार जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) फूड के पैकेट पर जनवरी 2013 से इसकी जानकारी देना अनिवार्य करने जा रही है। कंपनी को जीएम फूड के पैकेट पर उस खाद्य पदार्थ की पूरी जानकारी देनी होगी। इसके लिए मंत्रालय ने दिशा-निर्देश तैयार कर लिए हैं।

उपभोक्ता मामले मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि जीएम फूड के पैकेट पर कंपनियों को पहली जनवरी 2013 से जानकारी देना अनिवार्य होगा। इसके लिए मंत्रालय ने दिशा-निर्देश तैयार कर लिए है। जीएम फूड के पैकेट पर घोषणा अनिवार्य होने से उपभोक्ताओं को खरीदे हुए पैकेट में बंद खाद्य पदार्थ की पूरी जानकारी होगी।

जिससे उपभोक्ताओं को खाद्य पदार्थ का चुनाव करने में भी आसानी होगी। आयातित क्रूड सोयाबीन तेल जीएम फूड की श्रेणी में आता है। देश में अभी प्रत्यक्षत: जीएम फूड का उत्पादन नहीं हो रहा है लेकिन जीएम कॉटन का उत्पादन जरूर होता है। देश में कुल क्षेत्रफल के 90 फीसदी हिस्से में जीएम कपास की पैदावार हो रही है। ऐसे में इससे निकलने वाले कॉटन सीड (बिनौला) तेल भी जीएम फूड की श्रेणी में आता है।


अधिकारी ने बताया कि ज्यादातर जीएम फूड विदेशों से आयात होते हैं। इन बंद पैकेटों पर जीएम फूड होने की जानकारी अंकित नहीं होती है। इस वजह से उपभोक्ता इस तथ्य को लेकर अंधेरे में रहते हैं। इसीलिए उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान रखकर जीएम फूड के पैकेट पर इसकी जानकारी देने अनिवार्य होगा।

कंपनियों को खुदरा विक्रेताओं को बेची जाने वाले जीएम फूड के पैकेट पर कीमत एवं भार की लिखित सूचना छापनी होगी। साथ ही प्रत्येक पैकेट पर कंपनी का नाम और पता लिखना होगा, ताकि उपभोक्ता अपनी शिकायतों की सूचना दे सकें। पैकेटबंद हर पैकेट पर खाद्य पदार्थ का नाम, उसकी वास्तविक मात्रा, पैकेजिंग का महीना तथा वर्ष लिखना अनिवार्य किया जाएगा। ऐसा न करने वाली कंपनियों के खिलाफ दंड एवं जुर्माने का भी प्रावधान होगा।

  (Business Bhaskar.....R S Rana)

रिफाइंड तेल के टैरिफ वैल्यू पर मंत्रालयों में मतभेद

सरकार ने रिफाइंड खाद्य तेलों के आयात शुल्क की गणना के लिए टैरिफ वैल्यू बढ़ाने की सिफारिश की है। वित्त मंत्रालय ने कहा है कि टैरिफ वैल्यू मौजूदा मूल्य के आधार पर तय किया जाना चाहिए और नई टैरिफ वैल्यू के आधार पर 7.5 फीसदी आयात शुल्क लगाया जाना चाहिए। लेकिन उपभोक्ता मामलात मंत्रालय इसका विरोध कर रहा है।

वर्तमान में रिफाइंड खाद्य तेलों के आयात पर टैरिफ वैल्यू 484 डॉलर प्रति टन के आधार पर लगता है जो अंतरराष्ट्रीय बाजार के वर्तमान भाव का करीब 3.5 फीसदी होता है।

यह टैरिफ वैल्यू छह साल पहले तय किया गया था। तब से इसमें बदलाव नहीं किया गया जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में रिफाइंड खाद्य तेलों के दाम काफी बढ़ गए। आरबीडी रिफाइंड तेल के भाव भारतीय बंदरगाह पर सोमवार को 1,055 डॉलर प्रति टन रहे।

उपभोक्ता\ मामले मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि वित्त मंत्रालय ने रिफाइंड खाद्य तेलों के आयात पर शुल्क लगाने के लिए टैरिफ वैल्यू में बढ़ोतरी की सिफारिश की है। लेकिन उपभोक्ता मामले मंत्रालय इसका विरोध कर रहा है। उसका मानना है कि इससे घरेलू बाजार में खाद्य तेलों की कीमतों में तेजी आ सकती है। घरेलू खाद्य तेल उद्योग काफी समय से आयातित आरबीडी रिफाइंड तेल के आयात पर टैरिफ वैल्यू में बढ़ोतरी करने की मांग कर रहा है। (Business Bhaskar.....R S Rana)

गेहूं के वैश्विक उत्पादन अनुमान में कमी

6,710 लाख टन गेहूं का वैश्विक उत्पादन होने का अनुमान
6,760 लाख टन उत्पादन अनुमान जारी किया था अप्रैल में
6,950 लाख टन वैश्विक गेहूं उत्पादन रहा था पिछले साल

इंटरनेशनल ग्रेन्स काउंसिल (आईजीसी) ने गेहूं का वैश्विक उत्पादन अनुमान और घटा दिया है। यूरोप, रूस और मोरक्को में मौसम की प्रतिकूल स्थितियां रहने की संभावना से वर्ष 2012-13 में कुल वैश्विक उत्पादन 6,710 लाख टन रहने की संभावना है।

लंदन स्थित आईजीसी ने पिछले अप्रैल में 6,760 लाख टन गेहूं का उत्पादन होने का अनुमान जताया था। अप्रैल का अनुमान भी पिछले साल 2011-12 के 6,950 लाख टन उत्पादन से कम था। आईजीसी ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि मई के दौरान गेहूं उत्पादन की संभावनाएं कमोबेश अनुकूल रहीं। लेकिन यूरोपीय संघ, रूस और मोरक्कों में प्रतिकूल होने के कारण उत्पादन अनुमान में 50 लाख टन की कटौती की गई है। ताजा अनुमान के अनुसार पूरी दुनिया में 6710 लाख टन गेहूं का उत्पादन होने का अनुमान है।

आईजीसी ने गेहूं के खपत का अनुमान भी घटाकर 6810 लाख टन तय किया है। पिछले साल पूरी दुनिया में 6880 लाख टन गेहूं की खपत रही थी।
दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक देश चीन में 1000 लाख टन गेहूं का उत्पादन होने का अनुमान है जबकि भारत में 902.3 लाख टन उत्पादन रह सकता है।

रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012-13 में गेहूं का अंतरराष्ट्रीय कारोबार 74 लाख टन घटकर 1360 लाख टन रहने का अनुमान है जबकि पिछले साल 1430 लाख टन गेहूं का वैश्विक कारोबार हुआ था। आईजीसी ने कहा है कि यूरोप और अर्जेंटीना से सरप्लस गेहूं का निर्यात घट सकता है जबकि उत्पादन बढऩे और स्पर्धा घटने से अमेरिका से गेहूं का निर्यात बढऩे का अनुमान है। वर्ष 2012-13 के अंत में वैश्विक स्तर पर गेहूं का बकाया स्टॉक 150 लाख टन घटकर 1910 लाख रहने की संभावना है। (Business Bhaskar....R S Rana)

सिंथेटिक रबर की खपत बढ़ी, उत्पादन

भारत में सिंथेटिक रबर की खपत दो फीसदी बढ़कर 34,675 टन हो गई जबकि इसका उत्पादन इस अवधि में आंशिक तौर पर घटकर 9,569 टन हो गया। यह बात रबर बोर्ड के ताजा आंकड़ों में कही गई। फरवरी 2011 में रबर का उत्पादन 9,634 टन रहा जबकि खपत 33,925 टन रही।

रिपोर्ट के मुताबिक समीक्षाधीन महीने में वाहन टायर उद्योग आंशिक रुपये से बढ़कर 24,850 टन हो गया जो पिछले साल की समान अवधि में 24,692 टन था। सिंथेटिक रबर का आयात फरवरी 2012 में 16 फीसदी बढ़कर 27,695 टन हो गया जो पिछले साल की समान अवधि में 23,776 टन था।

सिंथेटिक रबर का उपयोग आम तौर पर टायर बनाने के लिए होता है। इसके अलावा साइकिल के टायर और ट्यूब, जूते, बेल्ट और होज आदि बनाने के लिए किया जाता है। (BS Hindi)

26 मई 2012

यूरो जोन, रुपए ने घटाई गोल्ड की चमक

अहमदाबाद
दुनिया के सबसे बड़े गोल्ड कंज्यूमर भारत में बुलियन फ्यूचर
की ट्रेडिंग अप्रैल में साल-दर-साल आधार पर 35 फीसदी कम रही। इससे पहले लगातार तीन महीनों में कमोडिटी एक्सचेंज पर इनके ट्रेडिंग वॉल्यूम में बढ़ोतरी दर्ज की गई थी।

इस कैलेंडर वर्ष की पहली तिमाही में ट्रेडरों ने जबर्दस्त मुनाफे की उम्मीद में सोना और चांदी में बड़े पैमाने पर हेजिंग की थी, लेकिन अप्रैल में यह ट्रेंड जारी नहीं रह सका। मार्केट रेगुलेटर के आंकड़ों के मुताबिक बुलियन फ्यूचर ट्रेडिंग वॉल्यूम में पिछले साल के मुकाबले जनवरी में 104 फीसदी, फरवरी में 96 फीसदी और मार्च में 85 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी।

लेकिन अप्रैल में केवल 5.32 लाख करोड़ रुपए की बुलियन ट्रेडिंग हुई जो कि पिछले साल के इसी महीने के मुकाबले 35 फीसदी कम है। अप्रैल 2011 में 8.29 लाख करोड़ रुपए की बुलियन ट्रेडिंग हुई थी। उसमें भी 30 अप्रैल को खत्म पखवाडे़ में ट्रेडिंग वॉल्यूम पिछले साल की इसी अवधि के 4.99 लाख करोड़ रुपए के मुकाबले 41 फीसदी गिरकर 2.93 लाख करोड़ रहा।

इसकी तुलना अगर एग्री कमोडिटीज में हुई ट्रेडिंग से करें, तो वहां पिछले साल अप्रैल के 1.14 लाख करोड़ रुपए से 42 फीसदी ज्यादा 1.62 लाख करोड़ रुपए की ट्रेडिंग दर्ज की गई। एंजेल कमोडिटीज के एवीपी बदरुद्दीन खान ने कहा, 'बुलियन में ट्रेडरों की उदासीनता की वजह मौजूदा ईयू संकट, सुस्त अमेरिकी आर्थिक आंकड़े और रुपए में कमजोरी है। भारतीय बाजार में घटता कारोबार भी ट्रेडरों के बीच चिंता की वजह बना हुआ है।'

पिछले दो हफ्तों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने की कीमतों में 6 फीसदी की गिरावट आई है और यह दिसंबर 2011 के बाद से चार महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। चांदी की कीमतें पिछले दो हफ्तों में 11.5 फीसदी कम हुई हैं।

ऑल इंडिया जेम्स एंड ज्वैलरी ट्रेड फेडरेशन के चेयरमैन बछराज बामलवा ने कहा, 'इन सभी महीनों में आयात कम रहा है। ड्यूटी में बढ़ोतरी के कारण कंज्यूमर खरीदारी करने को तैयार नहीं हैं।' दूसरी ओर अनिश्चितता और घटते दाम के कारण बुलियन डीलर भी और सोना खरीदने से बच रहे हैं। उन्होंने कहा, 'तीन हफ्तों की हड़ताल के कारण भी बिजनेस डिस्टर्ब था। लेकिन शादी का मौसम आ रहा है तो आने वाले महीनों में कारोबार के थोड़ा जोर पकड़ने की उम्मीद है।' (ET Hindi)

कमोडिटी एक्सचेंजों का वायदा कारोबार घटा

चालू वित्त वर्ष 2012-13 में 15 मई तक देश के कमोडिटी एक्सचेंजों का कुल वायदा कारोबार 7.32 फीसदी गिरकर 18.49 लाख करोड़ रुपये रह गया। फॉरवर्ड मार्केट्स कमीशन (एफएमसी) के अनुसार सोने और चांदी के कारोबार में कमी आने के कारण वायदा कारोबार घट गया।

एफएमसी के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछले वित्त वर्ष 2011-12 में 15 मई तक 19.95 लाख करोड़ रुपये का कारोबार हुआ था। आलोच्य अवधि में बुलियन को छोड़कर बाकी एग्री कमोडिटी, मेटल्स और एनर्जी आयटमों के वायदा कारोबार में ज्यादा कारोबार हुआ। एफएमसी के आंकड़ों के अनुसार बुलियन यानि सोने व चांदी का वायदा कारोबार 34 फीसदी घटकर 8,48,489 करोड़ रुपये रह गया।

पिछले साल समान अवधि में 12,86,538 करोड़ रुपये का कारोबार हुआ था। दूसरी ओर एग्री कमोडिटी में वायदा कारोबार आलोच्य अवधि में 50.23 फीसदी बढ़कर 2,60,887 करोड़ रुपये हो गया। पिछले साल इस दौरान 173,661 करोड़ रुपये का कारोबार हुआ था।
कॉपर समेत मेटल्स में कारोबार 2,89,072 करोड़ रुपये से बढ़कर 407,707 करोड़ रुपये हो गया। इसके कारोबार में 41 फीसदी की बढ़त हुई। (Business Bhaskar)

रुक नहीं रही है कॉटन की कीमतों में गिरावट

घरेलू बाजार
निर्यातकों व यार्न मिलों की कमजोर मांग के कारण कॉटन की कीमतों में गिरावट बनी हुई है। अहमदाबाद में शंकर-6 किस्म की कॉटन का भाव शुक्रवार को घटकर 32,000 से 32,400 रुपये प्रति कैंडी रह गया जबकि आठ मई को इसका भाव 35,200 से 35,500 रुपये प्रति कैंडी था।
विदेशी बाजार
न्यूयॉर्क बोर्ड ऑफ ट्रेड में मई महीने के वायदा अनुबंध में कॉटन की कीमतें सात मई को 84.84 सेंट प्रति पाउंड थी जबकि शुक्रवार को जुलाई महीने के वायदा अनुबंध में
घटकर 73.94 सेंट प्रति पाउंड पर बंद हुई। विश्व बाजार में सालभर में कॉटन की कीमतें 79.94 फीसदी घटी है।

घरेलू बाजार में कॉटन (जिनिंग के बाद तैयार रुई) की कीमतों में गिरावट रुक नहीं रही है। पिछले 20 दिनों में ही उत्पादक मंडियों में कॉटन के दाम करीब 9.5 फीसदी घटे हैं। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमतों में 14.7 फीसदी की भारी गिरावट आई है। विश्व स्तर पर कॉटन का बकाया स्टॉक ज्यादा बचने की संभावना है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम घटने से निर्यात मांग कमजोर है। इसलिए मौजूदा कीमतों में और भी मंदी की संभावना है।

केसीटी एंड एसोसिएट्स के मैनेजिंग डायरेक्टर राकेश राठी ने बताया कि वर्ष 2012-13 में विश्व स्तर पर कॉटन का बकाया स्टॉक 737 लाख गांठ (एक गांठ-170 किलो) बचने की संभावना है, जो पिछले साल से दस फीसदी अधिक है। चीन की आयात मांग भी कमजोर बनी हुई है जिससे विश्व बाजार में कॉटन के दाम घट रहे हैं। उन्होंने बताया कि न्यूयॉर्क बोर्ड ऑफ ट्रेड में मई महीने के वायदा अनुबंध में कॉटन की कीमतें सात मई को 84.84 सेंट प्रति पाउंड थी जबकि शुक्रवार को जुलाई महीने के वायदा अनुबंध में घटकर 73.94 सेंट प्रति पाउंड पर बंद हुई।

विश्व बाजार में सालभर में कॉटन की कीमतें 79.94 फीसदी घटी है। 24 मई 2011 को न्यूयार्क बोर्ड ऑफ ट्रेड में इसका भाव 153.88 सेंट प्रति पाउंड था। गुजरात जिनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष दलीप पटेल ने बताया कि निर्यातकों के साथ ही यार्न मिलों की कमजोर मांग के कारण कॉटन की कीमतों में गिरावट बनी हुई है।

अहमदाबाद मंडी में शंकर-6 किस्म की कॉटन का भाव शुक्रवार को घटकर 32,000 से 32,400 रुपये प्रति कैंडी (एक कैंडी-356 किलो) रह गया जबकि आठ मई को इसका भाव 35,200 से 35,500 रुपये प्रति कैंडी था। मुक्तसर कॉटन प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर नवीन ग्रोवर ने बताया कि यार्न की कीमतों में भी गिरावट बनी हुई है।

लुधियाना मार्केट में यार्न का दाम घटकर शुक्रवार को 195-200 रुपये प्रति किलो रह गया। महीने भर में इसकी कीमतों में करीब 10 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। घरेलू मिलों के पास कॉटन का पर्याप्त स्टॉक है जबकि यार्न में निर्यातकों की मांग कमजोर है। कृषि मंत्रालय के तीसरे आरंभिक अनुमान के अनुसार वर्ष 2011-12 में कपास का उत्पादन 352 लाख गांठ होने का अनुमान है। जबकि वर्ष 2010-11 में 330 लाख गांठ कपास का उत्पादन हुआ था। (Business Bhaskar.....R S Rana)

एफएमसी ने सोया अनुबंध में शुरू की 'स्टैगर्ड डिलिवरी'

कमोडिटी डेरिवेटिव बाजार नियामक वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) ने सोयाबीन को नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) पर सबसे अधिक लंबी अवधि के स्टैगर्ड डिलिवरी अनुबंध के रूप में स्वीकृति दी है। इसके साथ ही 20 जून को समाप्त हो रहे सोयाबीन जून 2012 अनुबंध के विक्रेताओं को एक्सपायरी तारीख से 28 दिन पहले अपने निपटान निर्णय सौंपने की जरूरत होगी। अब तक सबसे लंबी अवधि के स्टैगर्ड डिलिवरी अनुबंध जौ, अरंडी, चना, लाल मिर्च, कॉटनसीड ऑयल केक, धनिया, जीरा, मक्का, शुगर एम 20,  गेहूं, आलू, सरसों, हल्दी, काली मिर्च, रबर, स्टील लॉन्ग, गोल्ड 100 ग्राम और पीवीसी अनुबंध 15 दिन के लिए थे।
स्टैगर्ड डिलिवरी सिस्टम के संबंध में प्रस्ताव को एक्सपायरी की तारीख के लिए 28 दिन पहले की सीमा के साथ मंजूरी दी गई है और कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायरी, जिसमें एक्सपायरी का दिन भी शामिल है, के अंतिम 5 दिनों के दौरान ताजा ओपन पोजीशन की अनुमति नहीं होगी। आयोग ने सोयाबीन में 11 जून 2012 के बाद से अक्टूबर 2012 और नवंबर 2012 एक्सपायरी को लॉन्च किए जाने के लिए भी अनुमति प्रदान की है।
संशोधित व्यवस्था के तहत विक्रेता को अनुबंध की एक्सपायरी के 28 दिन पहले अपने निर्णय को सौंपना होगा जिसे विश्लेषक असंभव बता रहे हैं।
सोयाबीन के लिए हालांकि टेंडर अवधि अनुबंध के निपटान के हर महीने की 5 तारीख को शुरू होगी। यदि 5 तारीख को शनिवार, रविवार या एक्सचेंज में अवकाश का दिन पड़ता है तो टेंडर अवधि अगले कामकाजी दिवस से शुरू होगी। विक्रेता को टेंडर अवधि के दौरान अनुबंध की एक्सपायरी तक किसी भी दिन डिलिवरी का अपना निर्णय लेने का विकल्प होगा और उसके अनुसार प्रक्रिया के अनुरूप खरीदार डिलिवरी ले सकेगा।
यदि टेंडर तारीख टी है तो पे-इन और पे-आउट टी+2 दिन (शनिवार को छोड़ कर) को होंगे। यदि टी+2 दिन शनिवार, रविवार या एक्सचेंज पर छुट्टी का दिन होता है तो बैंक क्लियरिंग, पेन-इन और पे-आउट अगले कामकाजी दिन प्रभावित होगा।
विक्रेता अनुबंध की एक्सपायरी तक टेंडर अवधि के दौरान डिलिवरी देने की अपनी तारीख दे सकते हैं। यदि डिलिवरी से जुड़ा विक्रेता अपनी जिम्मेदारी में विफल रहता है तो उसे एफएमसी दिशानिर्देशों के अनुसार दंडित किया जाएगा। (BS Hindi)

तिलहन का उत्पादन बढ़ाने की कवायद

कृषि मंत्रालय नई पंचवर्षीय योजना अवधि 2012-17 के दौरान पाम तेल और तिलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए एक अलग अभियान शुरू करेगा।
इस योजना से जुड़े एक आधिकारिक सूत्र ने बताया, 'उत्पादन से संबंधित अनुमान के मुताबिक जहां तिलहनों की आंतरिक आपूर्ति तकरीबन 3.85 करोड़ टन है, वहीं मोटे तौर पर मांग लगभग 5.9 करोड़ टन की है। मांग और आपूर्ति के बीच यह भारी अंतर फिलहाल आयात के जरिये पाटा जा रहा है, जिसका खामियाजा सरकारी खजाने को उठाना पड़ रहा है। इसलिए पाम तेल और तिलहनों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए फिलहाल जितनी योजनाएं चल रहीं हैं, उन सभी को मिलाकर एक नया अभियान 'नैशनल मिशन ऑन ऑयल सीड्स ऐंड पाम ऑयल' शुरू किया जाएगा।'
सूत्रों का यह भी कहना है कि पाम ऑयल और तिलहन उन चुनिंदा फसलों में शामिल हैं, जिन्हें बढ़ावा देने के लिए अन्य फसलों की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। दूसरे मामलों में फसलों के लिए तमाम मौजूदा एकल योजनाओं और प्रौद्योगिकी से संबंधित अभियानों का प्रमुख अभियान 'राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई)' के तहत संबंधित कार्यक्रमों में विलय कर दिया जाएगा। सूत्रों ने स्पष्ट किया कि अब तेल और तिलहनों के उत्पादन को बढ़ावा देने का काम केंद्र सरकार की ओर से प्रायोजित तिलहन, दालें, पाम तेल और मक्का (आइसोपॉम) के लिए एकीकृत कार्यक्रम के तहत किया जाएगा। यह प्रौद्योगिकी से संबंधित अभियान है, जो 2004 से चल रहा है। इसके अलावा रागी और बाजरे जैसे मोटे अनाज समेत मक्का को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान (एनएफएसएम) में विलय किया जाएगा, जिसके दायरे में चावल, गेहूं और दालें आती हैं। (BS Hindi)

जूट क्षेत्र का वि‍स्‍तार

जूट उद्योग का भारत की अर्थव्‍यवस्‍था में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। यह पूर्वी क्षेत्र खासकर पश्‍चि‍म बंगाल के प्रमुख उद्योगों में एक है। स्‍वर्ण रेशा कहा जाने वाला जूट प्राकृति‍क, नवीकरणीय, जैविक और पर्यावरण के अनुकूल उत्‍पाद होने के कारण सुरक्षि‍त पैकेजिंग के सभी मानकों पर खरा उतरता है। ऐसा अनुमान है कि‍ जूट उद्योग संगठि‍त क्षेत्र तथा तृतीयक क्षेत्र एवं संबद्ध गति‍वि‍धि‍यों समेत वि‍वि‍ध इकाइयों में 3.7 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करता है और 40 लाख जूट कृषक परि‍वारों को जीवि‍का उपलब्‍ध कराता है। इसके अलावा बड़ी संख्‍या में लोग जूट व्‍यापार से जुड़े हैं।
      वैश्‍वि‍क परि‍प्रेक्ष्‍य से भारत कच्‍चे जूट और जूट उत्‍पादों का एक प्रमुख उत्‍पादक है। वि‍श्‍व में वर्ष 2007-08 में जूट, केनाफ और संबद्ध रेशे के  कुल 30 टन उत्‍पादन में भारत की हि‍स्‍सेदारी 18 टन की रही थी। प्रति‍शत के हि‍साब से भारत ने वर्ष 2007-08 में कुल उत्‍पादन का 60 फीसदी उत्‍पादन कि‍या था। जूट और संबद्ध रेशे का उत्‍पादन  वर्ष 2007-08 में वर्ष 2004-05 की तुलना में 25 फीसदी बढ़कर 30 लाख टन हो गया। भारत में इसके उत्‍पादन में 28 फीसदी की वृद्धि‍ हुई और यह 18 लाख टन तक पहुंच गया।

      भारत में 79 समग्र जूट मि‍लें हैं। इन जूट मि‍लों में पश्‍चि‍म बंगाल में 62, आंधप्रदेश में सात, बि‍हार और उत्‍तर प्रदेश में तीन तीन, तथा  असम, उड़ीसा, त्रि‍पुरा एवं छत्‍तीसगढ़ में एक एक मि‍ल है।

      जूट क्षेत्र के महत्‍व पर ध्‍यान देते हुए कपड़ा मंत्रालय जूट क्षेत्र को मजबूत एवं उज्‍ज्‍वल बनाने के लि‍ए कई कदम उठा रहा है ताकि‍ यह घरेलू एवं वैश्‍वि‍क बाजार में प्रति‍स्‍पर्धा कर सके और जूट कृषकों को लाभकारी आय मि‍ले। इन उद्देश्‍यों की प्राप्‍ति करने के लि‍ए नई जींस वि‍कास रणनीति‍ पर बल दि‍या गया है जिसके मुख्‍य तत्‍व इस प्रकार हैं-
·         अनुसंधान एवं नयी कि‍स्‍म के बीजों का उत्‍पादन।
·         रेशे निष्‍कर्षण की बेहतर प्रौद्योगि‍की और प्रवि‍धि‍।
·         अनुबंध कृषि‍ को प्रोत्‍साहन।
·         बफर स्‍टाक के माध्‍यम से कच्‍चे जूट के दाम में स्‍थि‍रीकरण।
·         गैर पारंपरि‍क उत्‍पादों के लि‍ए बाजार का वि‍कास।
·         आधुनि‍कीकरण के लि‍ए जूट उद्योग को प्रोत्‍साहन पैकेज।
·         जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन को जारी रखना।
·         कार्बन क्रेडि‍ट हासि‍ल करने के लि‍ए कार्बन उत्‍सर्जन में कमी।
ग्रामीण गरीबों और शि‍ल्‍पकारों की सामाजि‍क समानता और समग्र वि‍कास को ध्‍यान में रखते हुए सरकार जूट के वि‍वि‍ध उत्‍पादों के उत्‍पादन एवं वि‍पणन में लगे  छोटे और मझौले उद्यमों, गैर सरकारी संगठनों और स्‍वयं सहायता समूहों को सहयोग प्रदान करने में तेजी ला रही है। उन्‍हें प्रशि‍क्षण, उपकरण और बाजार संपर्क सुवि‍धा प्रदान की जा रही है ।

एनजीएमसी लि‍मि‍टेड के अंतर्गत जूट मि‍लों की बहाली
     इस क्षेत्र में सरकार ने जो एक महत्‍वपूर्ण कदम उठाया है वह है राष्‍ट्रीय जूट वि‍निर्माण नि‍गम (एनजेएमसी) लि‍मि‍टेड के तहत जूट मि‍लों की बहाली। एनेजएमसी एक सार्वजनि‍क उपक्रम है जि‍सके अंतर्गत छह जूट मि‍ले हैं। इन मि‍लों का 1980 के दशक में राष्‍ट्रीयकरण कि‍या गया था। ये सभी छह इकाइयां 6 से लेकर 9 सालों से चल नहीं रही हैं।
      सरकार ने हाल ही में कंपनी के पुनरुद्धार के लि‍ए 1562.98 करोड़ रूपए का पैकेज मंजूर कि‍या है और 6815.06 करोड़ रूपए का ऋण बकाया और ब्‍याज माफ कि‍या है। पुनर्बहाल पैकेज के तहत नि‍गम की तीन इकाइयों को चालू करना है । ये इकाइयां हैं- कोलकाता की कि‍न्‍नि‍सन एवं खरदा तथा बि‍हार में कटि‍हार की राय बहादुर हरदत राय मि‍ल। पुनरुद्धार पैकेज के लि‍ए संसाधन बंद पडी मि‍लों और चालू की गयी मि‍लों के अति‍रि‍क्‍त परि‍संपत्ति‍यों से जुटाये गए।
     
      मंत्रि‍मंडल के फैसले के आधार पर एनजेएमसी प्रबंधन पुनरूद्धार योजना को लागू करने के लि‍ए जरूरी कदम उठा रहा है।
      इन मि‍लों के फि‍र से चालू होने से पश्‍चि‍म बंगाल और बि‍हार में 10 हजार से अधि‍क लोगों को प्रत्‍यक्ष रोजगार मि‍लेगा।

जूट और मेस्‍टा के लि‍ए न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य
कि‍सानों के हि‍त में हर साल कच्‍चे जूट और मेस्‍टा के लि‍ए न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य तय कि‍ए जाते है। वि‍भि‍न्‍न श्रेणि‍यों के मूल्‍य को तय करते समय नि‍म्‍न श्रेणी के जूट को हत्‍सोसाहि‍त कि‍या जाता है और उच्‍च श्रेणी के जूट को प्रोत्‍साहन दि‍या जाता है ताकि‍ कि‍सान उच्‍च श्रेणी के जूट के उत्‍पादन के लि‍ए प्रेरि‍त हों।
भारतीय जूट नि‍गम कपड़ा मंत्रालय के तहत एक सार्वजनि‍क उपक्रम है और यह कि‍सानों के लि‍ए कच्‍चे जूट के समर्थन मूल्‍य को लागू करवाने का कार्य करता है।

जूट श्रमि‍कों की कार्यस्‍थि‍ति‍ में सुधार
     जूट उद्योग के श्रमि‍कों के लाभ के लि‍ए एक अप्रैल, 2010 को गैर योजना कोष के तहत कपड़ा मंत्रालय के अनुमोदन से नयी योजना शुरु की गयी।
      जूट क्षेत्र के श्रमि‍कों की कल्‍याण योजना जूट मि‍लों और वि‍वि‍ध जूट उत्‍पादों के उत्‍पादन में लगी छोटी इकाइयों में कार्यरत श्रमि‍कों के संपूर्ण कल्याण एवं लाभ के लि‍ए है। योजना के अंतर्गत मि‍ल क्षेत्र में स्‍वच्‍छता, स्‍वास्‍थ्‍य सुवि‍धाएं और उपयुक्‍त कार्यस्‍थि‍ति‍, छोटे और मझौले जूट वि‍वि‍ध उत्‍पाद इकाइयों को सामाजि‍क आडि‍ट के लि‍ए प्रोत्‍साहन का प्रावधान शामि‍ल है। इसके अंतर्गत राजीव गांधी शि‍ल्‍पी स्‍वास्‍थ्‍य बीमा योजना की तर्ज पर इस क्षेत्र के श्रमि‍कों को बीमा सुवि‍धा प्रदान की जाती है। इसे राष्‍ट्रीय जूट बोर्ड लागू करेगा।

      इसके अलावा मंत्रालय ने कपड़े के क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के कौशल के उन्‍नयन के लि‍ए समेकि‍त कौशल वि‍कास योजना शुरू की है। जूट कामगारों को भी इसमें शामि‍ल कि‍या गया है। सरकार अगले पांच साल में 2360 करोड़ रुपए की कुल लागत से 27 लाख लोगों के कौशल उन्‍नयन का प्रशि‍क्षण देगी।

राष्‍ट्रीय जूट नीति‍-2005
     बदलते वैश्‍वि‍क परि‍दृश्‍य में प्राकृति‍क रेशे के वि‍कास, भारत में जूट उद्योग की कमि‍यां और खूबि‍यां , वि‍श्‍व बाजार में वि‍वि‍ध और नूतन जूट उत्‍पादों की बढ़ती मांग को ध्‍यान में रखकर सरकार ने अपने लक्ष्‍यों और उद्देश्‍यों को पुनर्परि‍‍भाषि‍त करने तथा जूट उद्योग को गति‍ प्रदान करने के लि‍ए राष्‍ट्रीय जूट नीति‍-2005 की घोषणा की।
     
      इस नीति‍ का मुख्‍य उद्देश्‍य भारत में जूट क्षेत्र में वि‍श्‍वस्‍तरीय कला वि‍निर्माण क्षमता, जो पर्यावरण के अनुकूल भी हो,  में मदद कर उसे विनि‍र्माण और निर्यात के लि‍ए वैश्‍वि‍क रूप से प्रति‍स्‍पर्धी बनाना है। इसके तहत सार्वजनि‍क एवं नि‍जी भागीदारी से जूट की खेती में अनुसंधान एवं वि‍कास गति‍वि‍धि‍यों में तेजी लाना है ताकि‍ लाखों जूट कि‍सान अच्‍छे कि‍स्‍म के जूट का उत्‍पादन करें और उनका प्रति‍ हेक्‍टेयर उत्‍पादन बढ़े एवं उन्‍हें आकर्षक दाम मि‍ले।
जेपीएम अधि‍नि‍यम
जूट पैकेजिंग पदार्थ (पैकेजिंग जिंस में अनि‍वार्य इस्‍तेमाल) अधि‍नि‍यम, 1987 (जेपीएम अधि‍नि‍यम) नौ मई, 1987 को प्रभाव में आया। इस अधि‍नि‍यम के तहत कच्‍चे जूट के उत्‍पादन , जूट पैकेजिंग पदार्थ और इसके उत्‍पादन में लगे लोगों के हि‍त में कुछ खास जिंसों की आपूर्ति एवं वि‍तरण में जूट पैकेजिंग अनि‍वार्य बना दि‍या गया है।
      एसएसी की सि‍फारि‍शों के आधार पर सरकार जेपीएम,1987 के अतंर्गत जूट वर्ष 2010-11 के लि‍ए अनि‍वार्य पैकेजिंग के नि‍यमों को तय करेगी , इसके तहत अनाजों और चीनी के लि‍ए अनि‍वार्य पैकेजिंग की शर्त तय की जाएगी। तदनुसार , जेपीएम अधि‍नि‍यम के अंतर्गत सरकारी गजट के तहत आदेश जारी कि‍या जाएगा जो  30 जून, 2011 तक वैध रहेगा।

जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन
सरकार ने जूट उद्योग के सर्वांगीण वि‍कास एवं जूट क्षेत्र की वृद्धि‍ के लि‍ए ग्‍यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान पांच साल के लि‍ए जूट प्रौद्योगि‍की मि‍शन शुरु कि‍या है। 355.5 करोड़ रुपए के इस मि‍शन में  कृषि‍ अनुसंधान एवं बीज वि‍कास, कृषि‍ प्रवि‍धि‍, फसल कटाई और उसके बाद की तकनीकी, कच्‍चे जूट के प्राथमि‍क एवं द्वि‍तीयक प्रस्‍संकरण तथा वि‍वि‍ध उत्‍पाद वि‍कास एवं वि‍पणन व वि‍तरण से संबंधि‍त  चार उपमि‍शन हैं। इन उपमि‍शनों को कपड़ा और कृषि‍ मंत्रालय मि‍लकर लागू कर रहें हैं।

प्रौद्योगि‍की उन्‍नयन कोष योजना
     इस योजना का उद्देश्‍य प्रौद्योगि‍की उन्‍नयन के माध्‍यम से  कपड़ा / जूट उद्योग को प्रति‍स्‍पर्धी बनाना तथा उनकी प्रति‍स्‍पर्धात्‍मकता में सुधार लाना और उसे संपोषणीयता प्रदान करना है।
जूट  उद्योग के आधुनि‍कीकरण के लि‍ए सरकार ने 1999 से अबतक 722.29 करोड़ रूपए का नि‍वेश कि‍या है। (PIB)

नहीं होगी जूट बोरियों की किल्लत

कोलकाता । मांग बढ़ने से देश में फिलहाल जूट बोरे की जो फौरी किल्लत है, उसे जल्द ही दूर कर लिया जाएगा। इसके लिए बांग्लादेश से बोरियों के आयात की नौबत नहीं आएगी। यह दावा जूट मिलों के संगठन इंडियन जूट मिल एसोसिएशन [इज्मा] ने किया है। जूट आयुक्त का भी कहना है कि बोरियों की किल्लत दूर करने में देश की जूट मिलें सक्षम है।
इज्मा के अध्यक्ष मनीष पोद्दार का कहना है कि रबी खरीद सीजन से पहले राज्यों ने अनाज खरीद का जो अनुमान लगाया था, केंद्र सरकार ने उसी अनुपात में 9.05 लाख गांठ [एक गांठ में 500 बोरियां] जूट बोरियों की खरीद का लक्ष्य रखा था। मगर गेहूं की बंपर पैदावार को देखते हुए राज्यों ने खरीद का लक्ष्य बढ़ा दिया है। अब यह लक्ष्य बढ़कर 12 लाख गांठ हो गया है। जूट मिलें करीब 9.50 लाख गांठों की आपूर्ति कर चुकी है। मई के अंत तक और दो लाख गांठों की आपूर्ति किए जाने की उम्मीद है, जबकि 10 जून तक शेष की भी सप्लाई कर दी जाएगी।
पोद्दार के मुताबिक राज्यों की ओर से, खासकर मध्य प्रदेश के गलत आकलन के कारण ऐसे हालात पैदा हुए हैं। मध्य प्रदेश ने शुरुआत में करीब डेढ़ लाख गांठ दी जरूरत का अनुमान लगाया था। बाद में उसने इसे दोगुना कर तीन लाख गांठ पहुंचा दिया। जूट आयुक्त अत्रि भंट्टाचार्य के मुताबिक प्लास्टिक बोरियों पर प्रतिबंध के चलते भी जूट बोरों की मांग लगातार बढ़ रही है। चालू वर्ष में धान के बाद अब गेहूं, दाल और चीनी का उत्पादन भी बढ़ा है। इसके चलते जूट बोरे की मांग बढ़ गई है। इसके अलावा हैंड बैग की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मांग तेजी से बढ़ रही है।
सरकार को सालाना 25 लाख टन जूट उत्पादों की आवश्यकता होती है, जबकि देश के जूट मिलों की उत्पादन क्षमता करीब 31 लाख टन है। जूट की पैदावार में लगभग सात फीसद की बढ़ोतरी के बावजूद इन दिनों न सिर्फ किसान बल्कि सरकार को भी बोरे की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। इसके चलते गेहूं खरीद प्रभावित हो रही है। आपूर्ति बढ़ाने के लिए सरकार बांग्लादेश से आयात के अलावा प्लास्टिक की बोरियों को भी इस्तेमाल करने की छूट देने का विकल्प भी आजमा सकती है। (Jagran)

Jute industry under CCI lens for alleged cartelisation

The Competition Commission of India (CCI) will investigate an alleged cartelisation charge on the domestic jute industry. Prima facie, the regulator has found substance in the complaint and last week decided to initiate a probe, said a sugar industry official.
The sugar industry had filed a complaint with CCI through two apex associations claiming that the jute industry had abused its dominant position by charging excessive price in the absence of competition.




had appealed to the commission to use its advocacy role and advise the textile ministry to suitably relax the mandatory jute packaging requirements for sugar. The textile ministry, the administrative ministry for jute industry, and the two jute industry bodies have been made parties in the case. The sugar industry consumes around 300,000 tonnes of A Twill jute sacks at Rs 1,650 crore at the Rs 55,000 a tonne. “The Indian Jute Mills Association and Gunny Traders Association have cartelised the market for packaging material for sugar thereby infringing section 3(3) of the CCI Act by jointly deciding sale prices and limiting technical development of the industry,” the Indian Sugar Mills Association and National Federation of Cooperative Sugar Factories have alleged. The All India Flat Tape Manufacturers Association, which produces plastic sacks, has also joined hands since the reservation given to jute industry has restricted their growth.
The Jute Packaging (Mandatory) Act of 1987 had made use of jute bags mandatory for packing sugar, foodgrain, fertiliser and cement. But, the supply of jute bags failed to keep up with the growing output. As a consequence, cement and fertilisers were exempted. An exception is given to sugar mills on sugar meant for export and bags of up to 25kg.
In international trade, the accepted practice is to pack sugar in high-density polyethylene (HDPE) bags. The Centre has the power to decide on the quantum of sugar that should be packed in jute. However, the government has repeatedly overruled the recommendations of the Standing Advisory Committee that sugar factories be allowed to pack 25 per cent of their production in non-jute bags.
The situation, the sugar industry argues “has encouraged the creation of a dominant position of the jute industry, whereby they are misusing the position by taking undue advantage of their monopolistic and dominant position in the absence of any competition from non-jute suppliers”.
The associations have argued that since grains are procured by the government for PDS, sugar is the only commodity handled by the non-government body that is forced to use jute.
The sugar industry argued that by making jute bags mandatory, the sweetener consumers are penalised in two ways: First, they are made to pay an extra 40 paise for a kg of sugar since cost of jute bag is higher and second, that the sugar is not as clean as it would have been if it had been packed in HDPE bags. (BS )

Jute Industry

Press Information Bureau
Government of India
Ministry of Textiles
14-May-2012 15:32 IST
Government takes various supportive measures from time to time to address the problems of jute growers/cultivators as well as revival of jute industry in the country. Some of the important steps are as under:
i) Government of India has launched the Jute Technology Mission (JTM) as a major initiative for overall development of the jute industry and growth of the jute sector during the 11th Plan with a total outlay of Rs. 355.5 crores.   Under the JTM, several schemes are operational under the Mini Mission I, II, III& IV which benefit jute growers and encourage them for jute production. Mini Mission-I aims towards strengthening agriculture research and development in jute sector for improving the yield and quality.  Mini Mission-II is targeted towards transfer of improved technology and agronomic practices in production and post-harvesting phase. Under Mini-Mission-III, market linkage of raw jute is provided in all jute growing states.  Mini Mission-IV provides for modernization of jute industry, upgradation of skills and market promotion.
ii) National Jute Board and Jute Corporation of India work on projects with National Institute of Research on Jute & Allied Fibre Technology (NIRJAFT) and Central Research Institute for Jute and Allied Fibres (CRIJAF) to develop better jute seeds and to improve agronomical practices for jute cultivation.
(iii) Minimum Support Price for raw jute and mesta is fixed every year to encourage farmers to grow more jute.
iv) Jute Corporation of India and National Jute Board distribute certified seeds to farmers for increasing productivity.
v) In order to encourage jute production, Government follows the policy for compulsory  packaging of food grains & Sugar in jute.
vi) Creating awareness regarding various schemes being implemented for promotion of jute and jute products.
vii) Participation in the export promotion fairs for promotion of jute diversified products. Besides, marketing assistance extended to the exporters for participating in different promotional events of the National Jute Board under Fast Track Export Market Development Scheme.
viii) National Jute Board has organised Capacity Development & Marketing Training Programme for Jute Entrepreneurs.
 The Jute Corporation of India (JCI) is the nodal agency of the Ministry of Textiles, Govt. of India for procurement of raw jute through its 171 purchase centres and State cooperative bodies in all major jute growing states at the Minimum Support Price (MSP) declared by the Govt. of India. Jute Corporation of India (JCI) procures raw jute under two circumstances:
1. When prices are at the MSP level. For such purchases there is no ceiling on the quantity of purchases.
2. For supply to National Jute Manufactures Corporation (NJMC)’s Mills based on indents specifying the quantity which is received from NJMC. Such purchases are made at prevailing market prices as Commercial Purchases JCI did not incur any losses for its operations of purchasing jute at MSP.
State-wise production of raw jute in the country during the last three years are given below:
(In thousand bales of 180 k.g per bale)
States
2009-10
2010-11
2011-12*
Assam
715.3
625.4
658.0
Bihar
1118.4
1164.6
1611
Meghalaya
34.7
34.4

Nagaland
2.0
5.4

Orissa
30.4
36.3
32.1
Tripura
3.8
4.2

West Bengal
9325.0
8137.5
8600
Others
0.8
1.6
44.9
Total
11230.4
10009.4
10946.0
Source: Ministry of Agriculture, Directorate of Economics & Statistics.
* 2nd advance estimates.
State-wise raw jute procured by JCI during the last three years are given below:
(In thousand bales of 180 k.g per bale)
State
2009-10
2010-11
2011-12
  Commercial
Commercial
MSP
Commercial
West Bengal
0.7
21.1
84.0
18.0
Bihar
  2.3
15.6
7.0
Assam
0.4
10.7
18.2

Orissa
    1.2

Tripura
    0.5

Total
1.1
34.1
119.5
25.0
There were no MSP operations in 2009-10 and 2010-11 as the prices were above the MSP level.
Minimum Support Price (MSP) for raw jute is fixed every year to protect the interest of farmers. The minimum support price is fixed by the Government on the basis of recommendations of the Commission for Agricultural Costs and Prices (CACP).  While formulating the agricultural price policy, CACP takes into account various factors such as cost of production, overall demand/supply situation, domestic and international prices and effect of minimum support price on general price level.  For the Jute Year 2012-13, Government of India has increased the MSP to Rs. 2200 per quintal from the previous year’s MSP of Rs. 1675 per quintal for TD-5 (Ex-Assam).
This information was given by the Minister of State for Textiles, Smt. Panabaaka Lakshmi  in a written reply in the Lok Sabha today. (PIB)

24 मई 2012

चीनी निर्यात को मिल सकती है अनुमति

सरकार चालू चीनी विपणन वर्ष 2011-12 में अक्टूबर तक कुल 25 लाख टन तक चीनी निर्यात की अनुमति दे सकती है। सरकार ने इसी महीने चीनी के निर्यात को ओजीएल के दायरे में किया था। इससे पहले सरकार 20 लाख टन चीनी के निर्यात की अनुमति दे चुकी थी। सरकार ने 11 मई से चीनी को ओजीएल के दायरे में लाते हुए इसके निर्यात को नियंत्रण मुक्त कर दिया था।
हालांकि वाणिज्य मंत्रालय ने मिलों से कहा है कि वे निर्यात अनुबंध के लिए पंजीकरण कराएं ताकि वह मात्रा पर निगरानी रख सके। खाद्य मंत्री केवी थॉमस ने कहा,'चीनी निर्यात का काम वाणिज्य मंत्रालय देखता है। निर्यात 20 लाख टन को छूने पर समीक्षा का फैसला किया गया था। उत्पादन 2.6 करोड़ टन रहने का अनुमान है और लेवी चीनी का उठाव कम होने के कारण 5,00,000 टन अतिरिक्त चीनी निर्यात की अनुमति देने की गुंजाइश है।'

लेवी चीनी उस चीनी को कहते हैं तो सरकार मिलों से सब्सिडीशुदा दर पर खरीदती है और राशन की दुकानों के जरिए बेचती है। सरकार ने विपणन वर्ष 2011-12 में चीनी का उत्पादन 2.52 करोड़ टन रहने का अनुमान लगाया है जबकि इसकी सालाना मांग 2.2 करोड़ टन रहती है। (BS Hindi)

गेहूं-निर्यात में बढ़ते कदम

सरकार ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात की प्रक्रिया शुरू कर दी है.
स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन (एसटीसी) ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मंगाई है. इसमें विदेशी आयातक ही भाग ले सकेंगे और विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 का ही गेहूं निर्यात होगा. बंदरगाह पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गेहूं उपलब्ध होगा. गेहूं निर्यात पर विचार इसलिए हो रहा है, क्योंकि खरीद में सुस्ती और विभिन्न रुकावटों के कारण कोई दो करोड़ टन गेहूं सड़ने की स्थिति में है.
इस साल 9.02 करोड़ टन के रिकॉर्ड उत्पादन का अनुमान है. जहां तक सरकारी गोदामों का सवाल है, वे फिलहाल अनाज से अटे हैं. केंद्रीय पूल में 1 अप्रैल 2012 को 543.36 लाख टन खाद्यान्न का स्टॉक था. इसमें करीब 200 लाख टन गेहूं है. चालू सीजन में सरकारी खरीद का लक्ष्य 318 लाख टन है. खुले बाजार में गेहूं का दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कम है इसीलिए सरकारी केंद्रों पर ज्यादा गेहूं जा रहा है. ऐसे में सरकारी खरीद 335 लाख टन से भी ज्यादा होने का अनुमान है.
गेहूं निर्यात के प्रस्ताव को मंजूरी मिल जाने से छह साल में पहली बार भारत सरकारी गेहूं भंडार को बेचने के लिए निर्यात बाजार का सहारा ले रहा है. हालांकि गेहूं का बड़े पैमाने पर निर्यात आसान नहीं है क्योंकि वैिक अनाज  बाजार में सभी प्रमुख गेहूं निर्यातक- रूस, ऑस्ट्रेलिया व यूक्रेन आदि देशों के पास भारी भरकम अनाज का भंडार है.
गुणवत्ता के मामले में भी भारतीय गेहूं दूसरे निर्यातक देशों के मुकाबले कमजोर है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत के मुकाबले यूक्रेन, रूस और ऑस्ट्रेलिया का गेहूं सस्ता भी है. फिर भी युगांडा, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई, और खाड़ी देशों को गेहूं की जरूरत है, लिहाजा इन देशों में भारतीय गेहूं के लिए बाजार हो सकता है. अब केंद्रीय पूल से गेहूं के निर्यात में भी सबसे बड़ी समस्या वित्तीय प्रबंधन की हो सकती है.
क्योंकि गेहूं की खरीद व भंडारण की लागत साल 2012-13 में करीब 18.22 रुपये प्रति किलोग्राम रहने की संभावना है, वहीं अमेरिकी गेहूं की वैश्विक औसत कीमतें जनवरी-मार्च के  दौरान 15.06 रुपये प्रति किलोग्राम थीं. यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ने सितम्बर, 2011 में गेहूं निर्यात पर रोक हटाई थी तथा निर्यातकों को खुले बाजार से गेहूं खरीद कर निर्यात की अनुमित दी थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय गेहूं महंगा होने के कारण सितम्बर से अब तक 7.2 लाख टन गेहूं का ही निर्यात हो पाया है.
इस साल भारत के लिए गेहूं का निर्यात करना इसलिए भी जरूरी है ताकि केंद्रीय पूल में नए स्टॉक के लिए जगह बन सके. यदि गेहूं का निर्यात नहीं हुआ, तो कई परेशानियां पैदा हो सकती हैं. ज्यादातर राज्यों में भी अनाज  भंडारण क्षमता के मामले में स्थिति अच्छी न होने के कारण किसान धरने-प्रदर्शन पर उतर आए हैं. वे मजबूरी में आढ़तियों को एमएसपी से कम भाव पर अपना गेहूं बेच रहे हैं.
सरकार ने इस बार गेहूं का एमएसपी 1285 रु पये प्रति  क्ंिवटल तय किया है. गौरतलब है कि कुल स्टॉक के मुकाबले भंडारण क्षमता काफी कम होने के कारण चालू सीजन 2012-13 में सरकार को लगभग पचास फीसद खाद्यान्न गोदामों के बाहर खुले आसमान के नीचे आधे-अधूरे तिरपालों के सहारे ही रखना होगा. निश्चित रूप से गेहूं के निर्यात से जहां भंडारण की कमी से संबंधित चुनौती से कुछ तात्कालिक बचाव होगा, वहीं किसानों को भविष्य में फसल की बिक्री और अच्छे मूल्य की आशा बंधेगी.
मार्च 2012 में संसद में पहली कृषि समीक्षा में भी भंडारण की आवश्यकता पर जोर झलका है. छोटे किसानों के लिए भंडारण की और ज्यादा जरूरत है.
भंडारण सुविधा के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है. यद्यपि सरकार ने यह जरूरत पूरा करने के लिए वेयरहाउसिंग सेक्टर में 100 फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति भी दे रखी है और विभिन्न टैक्स रियायतें देकर निवेशकों को प्रोत्साहित करने का प्रयास भी किया जा रहा है. लेकिन निवेशकों के कदम वेयरहाउसिंग सेक्टर की ओर धीमी गति से बढ़ रहे हैं.
चूंकि पर्याप्त खाद्यान्न भंडारण का संबंध अच्छी विदेशी मुद्रा की कमाई से भी जुड़ गया है अत: खाद्यान्न भंडारण की अच्छी व्यवस्था से खाद्यान्न निर्यात करके खाली होते हुए विदेशी मुद्रा भंडार को भी भरा जा सकेगा. अच्छे खाद्यान्न भंडारण द्वारा यूरो और डॉलर की कमाई विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाने में मददगार हो सकती है. अच्छी भंडारण क्षमता और खाद्यान्न की उत्पादकता बढ़ाकर खाद्यान्न के निर्यात को विदेश व्यापार का प्रमुख अंग भी बनाया जा सकता है.
देश में खाद्यान्न उपलब्धता का वर्तमान परिदृश्य चिंताजनक है. खाद्य एवं कृषि संबंधी कुछ नए वैश्विक अध्ययन संदेश दे रहे हैं कि भारत में छोटे किसानों को खुशहाल बनाने पर सबसे अधिक ध्यान देना होगा. इस संदर्भ में सी रंगराजन समिति की रिपोर्ट उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया कि देश के 4 करोड़ 60 लाख छोटे किसानों को पर्याप्त भंडारण सुविधा, आसान  कर्ज और खेती के समुचित संसाधन उपलब्ध नहीं हैं. अब देश में कृषि बाजारों का आधुनिकीकरण किए जाने  और उन्हें बहुवांछित बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की भी महती आवश्यकता है.
यह भी ध्यान देना होगा कि खाद्य सुरक्षा के लिए हम जिस तरह गेहूं और चावल की उत्पादकता बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, उसी अनुपात में उन्हें रखने के लिए माकू ल भंडारण सुविधा भी स्थापित करनी होगी. इस कार्य में आने वाली अड़चनों को रोकना होगा. यह ध्यान देना होगा कि भारत से खाद्यान्न निर्यात के लिए प्रतिस्पर्धी देशों के समकक्ष निर्यात की रणनीति तैयार हो.
उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में कृषि सुधारों के तहत खाद्यान्न उत्पादकता वृद्धि, वेयरहाउसिंग सेक्टर के आधुनिकीकरण तथा भारतीय कृषि  सेक्टर को मजबूत आधार  दिया जाएगा और खाद्यान्न निर्यात को देश के निर्यात का एक अभिन्न अंग बनाया जाएगा. तभी खाद्यान्न सुरक्षा और किसान का सबलीकरण हो सकता है. (Samay Live)

22 मई 2012

दस रुपये के पैकेट पर स्टैंडर्ड पैकिंग सिस्टम लागू नहीं होगा

आर. एस. राणा नई दिल्ली

सरकार ने बिस्किट, नमकीन, चिप्स और अन्य खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियों को राहत देने के लिए दस रुपये मूल्य के खाद्य पदार्थ के पैकेट को स्टैंडर्ड पैकिंग सिस्टम से बाहर रखने का फैसला किया है। इसके साथ ही दस ग्राम से कम वजन वाले पैकेट पर भी स्टैंडर्ड पैकिंग सिस्टम लागू नहीं होगा। सरकार एक जुलाई 2012 से खाद्य पदार्थों की पैकिंग के लिए स्टैंडर्ड पैकिंग सिस्टम लागू करने जा रही है।

उपभोक्ता मामले मंत्रालय (भारत सरकार) के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि दस ग्राम से ज्यादा वजन वाले पैकेट और दस रुपये से ज्यादा कीमत वाले पैकेट इसके दायरे में आयेंगे। उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने खाद्य पदार्थों की पैकिंग के लिए स्टैंडर्ड सिस्टम लागू करनी की योजना बनाई है। खाद्य पदार्थों की पैकिंग के लिए वस्तु की मात्रा तय नहीं होने के कारण कंपनियां कितने भी भार में पैकिंग कर देती है। ऐसे में कभी-कभी कंपनियां पैकेट की कीमत तो बराबर रखती है लेकिन पैकेट के अंदर रखे पदार्थ की मात्रा में कमी कर देती है। जिसका कई बार उपभोक्ताओं को पता ही नहीं चल पाता।

उन्होंने बताया कि स्टैंडर्ड पैकिंग सिस्टम लागू होने के बाद कंपनियां 18, 39, 49 या फिर 59 ग्राम में खाद्य पदार्थों की पैकिंग नहीं कर सकेंगी। कंपनियों को खाद्य पदार्थों की पैकिंग सीधे तौर पर जैसे 10 ग्राम, 20 ग्राम, 60 ग्राम या फिर 90 ग्राम के आधार पर ही करनी होगी। कंपनियों को पैकेजिंग मेटिरियल और पुराने स्टॉक को समाप्त करने के लिए 30 जून 2012 तक का समय दिया हुआ है। ऐसे में एक जुलाई 2012 से देशभर में खाद्य पदार्थों की पैकिंग के लिए स्टैंडर्ड सिस्टम लागू करने की योजना है। नियमों का उल्लंघन करने वाली कंपनियों के खिलाफ दंड और सजा का प्रावधान होगा।

उन्होंने बताया कि डिब्बाबंद वस्तु अधिनियम के प्रावधानों और माप-तौल मानक (पैकेज्ड वस्तु) नियम, 1977 देशभर में सितंबर 1977 से लागू हैं। तथा 17 जुलाई 2006 को अधिसूचना और नियमों की समीक्षा की गई तथा उपभोक्ताओं के हितों के लिए नए प्रावधान लागू किए गए। जिसके आधार पर वैट के अंतर्गत शामिल खुदरा विक्रेताओं को बेची गई चीजों की कीमत एवं भार की लिखित सूचना कंपनियों को पैकेट पर छापनी अनिवार्य है। साथ ही प्रत्येक पैकेट पर कंपनी का नाम, पता और टेलीफोन नंबर लिखना होगा ताकि उपभोक्ता अपनी शिकायतों की सूचना दे सकें। (Business Bhaskar....R S Rana)

चाय में उफान के आसार

आपूर्ति में सख्ती और उत्पादन के घटते परिदृश्य को देखते हुए चाय के खुदरा कारोबारी इसकी कीमतों में 8 से 10 फीसदी की बढ़ोतरी पर विचार कर रहे हैं। उद्योग के सूत्रों के मुताबिक, चाय उत्पादक इलाकों में बढ़ते तापमान और अनियमित बारिश के चलते मांग-आपूर्ति का अंतर बढ़ा है और इसी वजह से कीमतें बढ़ सकती हैं। साल 2011-12 में देश में करीब 98 करोड़ किलोग्राम चाय का उत्पादन हुआ, जो इस साल घटने की संभावना है क्योंकि उत्तर-पूर्व के चाय उत्पादक इलाकों में मौसम प्रतिकूल हो रहा है।
देश में चाय बेचने वाले अग्रणी समूह बाघ बकरी ग्रुप के चेयरमैन पीयूष देसाई ने कहा - 'मौसम की स्थिति देश में चाय उत्पादन को प्रभावित कर रही है। उत्तर-पूर्वी इलाके में अनियमित बारिश ने भी चाय उत्पादन को नुकसान पहुंचाया है। साथ ही देश में औसतन 5 फीसदी की रफ्तार से खपत बढ़ रही है जबकि उत्पादन में महज 3 फीसदी की बढ़ोतरी देखने को मिली है। इस वजह से मांग-आपूर्ति का हिसाब-किताब गड़बड़ा गया है। इसके अलावा लागत बढ़ गई है, इस वजह से भी कीमतों में बढ़ोतरी होगी।'
सोमवार को बाघ बकरी ग्रुप ने चाय की विभिन्न श्रेणियों की कीमतों में 12 रुपये प्रति किलोग्राम का इजाफा कर दिया। पिछले पांच हफ्ते में कंपनी द्वारा कीमतों में दूसरी बार बढ़ोतरी की गई है। 16 अप्रैल को बाघ बकरी ने चाय की कीमतों में 12 रुपये प्रति किलोग्राम की बढ़ोतरी की थी। चाय बेचने वाली दूसरी कंपनियां गिरनार टी, टाटा टी और हिंदुस्तान यूनिलीवर आदि हैं। बाजार के अनुमानों के मुताबिक, खुदरा उपभोग के लिए चाय की औसत कीमतें दिसंबर 2003 के 160 रुपये प्रति किलोग्राम के मुकाबले मई 2012 में 304 रुपये प्रति किलोग्राम हो गई हैं।
दुनिया में चाय की सबसे बड़ी उत्पादक कंपनी मैकलॉयड रसेल के निदेशक आजम मोनेम ने कहा - 'काफी लंबे समय से कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई है और इसकी कीमतें महंगाई के सूचकांक के हिसाब से नहीं बढ़ी हैं। देश में चाय के भंडार में कमी है क्योंकि पिछले तीन साल से चाय का उत्पादन करीब-करीब स्थिर है। साथ ही इसकी उत्पादन लागत भी पिछले कई वर्षों में बढ़ी है।' मोनेम एक्सपोर्ट प्रमोशन ऐंड मार्केटिंग कमेटी ऑफ इंडियन टी एसोसिएशन के चेयरमैन भी हैं। उनके मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में आय बढऩे से खपत बढ़ी है और इस वजह से भी देश में चाय की कीमतों में इजाफा हुआ है।
गिरनार टी के हरेंद्र शाह ने कहा - नीलामी केंद्रों में भी कीमतें बढ़ी हैं। जून के बाद से ये खुदरा कीमतों में प्रतिबिंबित होनी शुरू हो जाएंगी। शाह ने कहा कि ज्यादातर कंपनियां कीमतों में बढ़ोतरी करेंगी। उधर, उद्योग के जानकार ने बताया कि मार्च से अप्रैल के दौरान चाय का उत्पादन कम हुआ है क्योंकि असम के चाय उत्पादक इलाकों में बारिश अनियमित रही है।
गुवाहाटी टी ऑक्शन बायर्स एसोसिएशन के सचिव दिनेश बियाणी ने कहा - 'नीलामी में चाय की कीमतों में 20 रुपये प्रति किलोग्राम की बढ़ोतरी पहले ही शुरू हो चुकी है, जो जल्द ही खुदरा बाजार में प्रतिबिंबित होंगी। चाय विक्रेताओं के पास पुराना स्टॉक नहीं है, लिहाजा बाजार में आपूर्ति में बहुत ज्यादा कमी देखने को मिलेगी।'
चाय का उत्पादन मार्च में शुरू होता है और दिसंबर में समाप्त होता है। चाय के सालाना उत्पादन में शुरुआती चार महीनों का करीब 20 फीसदी का योगदान होता है और अच्छी गुणवत्ता वाले चाय उत्पादन के लिए भी यह समय काफी महत्त्वपूर्ण होता है। जुलाई से अक्टूबर की अवधि में ज्यादातर चाय (करीब 50 फीसदी) का उत्पादन होता है। (BS Hindi)

रोबस्टा कॉफी की कीमतों में असामान्य बढ़ोतरी

घटते उत्पादन और रुपये में फिसलन के चलते दक्षिण भारत के प्रमुख बाजारों में हाल के दिनों में कॉफी की कीमतों असामान्य बढ़ोतरी देखने को मिली है। रोबस्टा चेरी (प्राकृतिक रूप से सूखे हुए बीन्स) की कीमतें दिसंबर 2011 व जनवरी 2012 के मुकाबले 25 फीसदी बढ़ गई हैं और फिलहाल यह 3250 रुपये प्रति बैग (प्रति बैग 50 किलोग्राम) के भाव पर बिक रही है। दिसंबर और जनवरी में इसकी कीमतें 2600 रुपये प्रति बैग थीं।
उधर, रोबस्टा के धुले हुए बीन्स की कीमतें करीब 23 फीसदी बढ़कर 6800 रुपये प्रति बैग हो गई हैं जबकि जनवरी में यह 5500 रुपये प्रति बैग के भाव पर उपलब्ध थी। निर्यातकों के बीच धुले हुए बीन्स की काफी मांग है, जो रुपये में आई गिरावट के चलते अतिरिक्त मुनाफा हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। कर्नाटक प्लांटर्स एसोसिएशन (केपीए) के चेयरमैन मार्विन रॉड्रिग्स ने कहा - 'इस साल हमने रोबस्टा कॉफी के उत्पादन में गिरावट देखी है क्योंकि पिछले साल के दौरान इस फसल को बारिश का पर्याप्त पानी नहीं मिला। साथ ही, निर्यातकों के बीच इसकी भारी मांग है क्योंकि रोबस्टा के धुले हुए बीन्स का 95 फीसदी देश से निर्यात होता है। पिछले पांच महीने में 12,236 टन रोबस्टा का निर्यात हो चुका है जबकि कुल सालाना उत्पादन 25,000 टन रहा है।'
साल 2011-12 में केपीए को 1.90 लाख टन रोबस्टा कॉफी के उत्पादन का अनुमान है, जो साल 2010-11 के मुकाबले 8.5 फीसदी कम है। साल 2010-11 में कुल 2,07,860 टन रोबस्टा कॉफी का उत्पादन हुआ था। हालांकि कॉफी बोर्ड ने अभी तक आधिकारिक आंकड़ा जारी नहीं किया है।
कॉफी एक्सपोट्र्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रमेश राजा ने कहा - 'रोबस्टा का उत्पादन मोटे तौर पर छोटे व मझोले उत्पादक करते हैं। चूंकि इस साल उत्पादन घटा है, लिहाजा बाद में ज्यादा कीमत की उम्मीद में उत्पादक इसका स्टॉक अपने पास रखे हुए हैं। रोबस्टा की किल्लत इस साल सितंबर-अक्टूबर में और स्पष्ट नजर आने लगेगी।'
राजा के मुताबिक, भारतीय बाजार में कॉफी की कीमतों में हुई बढ़ोतरी वैश्विक बाजार से ज्यादा है। वैश्विक बाजार में रोबस्टा की कीमतें मई 11 फीसदी बढ़कर 2100 डॉलर प्रति टन हो गई हैं जबकि इस साल फरवरी में यह 1900 डॉलर प्रति टन पर उपलब्ध था। हालांकि दिसंबर के स्तर के मुकाबले कीमतें 12.5 फीसदी कम हैं। (BS Hindi)

18 मई 2012

भारत में सोने की मांग 29 फीसदी गिरी

महंगाई दर और प्रॉपर्टी मार्केट पर अंकुश को लेकर निवेशकों की चिंता की वजह से साल की पहली तिमाही के दौरान चीन में सोने की मांग में रिकार्ड तेजी दर्ज की गई है जबकि पहले सोने की ऊंची कीमत की वजह से इसकी वैश्विक खपत की रुझान सुस्त रही थी। वल्र्ड गोल्ड कौंसिल (डब्ल्यूसीजी) की एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई।

इंडस्ट्री ग्रुप डब्ल्यूसीजी ने कहा कि सोने की वैश्विक मांग वर्ष 2012 के पहले तीन महीनों के दौरान 5 फीसदी गिरकर 1,097.6 टन पर आ गई। इसकी वजह यह थी कि एक साल पहले की तुलना में औसत कीमतों में लगभग 22 फीसदी की तेजी के कारण ज्वैलरी एवं टेक्नोलॉजी क्षेत्रों ने सोने की खरीद कम की थी, लेकिन निवेश मांग और केंद्रीय बैंक की खरीद ने इसे और नहीं गिरने दिया।

चीन लगातार दूसरी तिमाही के दौरान सोने का दुनिया का शीर्ष कंज्यूमर बना रहा और उसकी गोल्ड कंज्यूमर मांग 10 फीसदी बढ़कर 255.2 टन तक पहुंच गई। इस क्रम में उसने भारत के 207.6 टन की मांग को पीछे छोड़ दिया जिसमें साल के दौरान 29 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी।

डिस्पोजेबल आय गिरने से सोने की मांग सुस्त
मुंबई दुनिया के सबसे बड़े खरीदार भारत में सोने की मांग के नरम बने रहने की उम्मीद हैै। वल्र्ड गोल्ड कौंसिल (डब्ल्यूसीजी) के भारत एवं मिडल ईस्ट के प्रबंध निदेशक अजय मित्रा ने कहा कि ऊंची महंगाई दर के कारण लोगों की डिस्पोजेबल आय में कमी आई है जिसकी वजह से सोने की मांग सुस्त बनी रह सकती है। 2011 में देश में सोने की मांग 933.4 टन की रही थी।

साल की पहली तिमाही के दौरान भारत के विशाल गोल्ड ज्वैलरी मार्केट में 19 फीसदी की गिरावट आई जबकि बेहद उतार चढ़ाव से भरे और कमजोर रुपये के दबाव के कारण निवेश मांग 46 फीसदी लुढ़क गया। (Business Bhaskar)

खरीफ फसलों के एमएसपी में 53% तक वृद्धि की सिफारिश

आर.एस. राणा नई दिल्  
खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 15.7 फीसदी से 53 फीसदी बढ़ाने की सिफारिश की गई है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने खरीफ विपणन सीजन 2012-13 के लिए धान के एमएसपी को 1,080 रुपये से बढ़ाकर 1,250 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की है। हालांकि एमएसपी में बढ़ोतरी का अंतरिम फैसला मंत्रिमंडल को करना है।

सीएसीपी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि दलहन, तिलहन और मोटे अनाजों के साथ ही कपास के एमएसपी में ज्यादा बढ़ोतरी की सिफारिश की गई है। उन्होंने बताया कि सबसे ज्यादा बढ़ोतरी ज्वार के एमएसपी में 53 फीसदी करने की सिफारिश की गई है। ज्वार का एमएसपी 980 रुपये से बढ़ाकर 1,500 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की मांग की गई है। इसी तरह से बाजरा का एमएसपी 980 रुपये से बढ़ाकर 1,175 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की गई है।

उन्होंने बताया कि खरीफ दलहन के एमएसपी में भी 25 से 30 फीसदी की बढ़ोतरी करने की सिफारिश की गई है। अरहर के एमएसपी को 25 फीसदी बढ़ाकर 4,000 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की गई है। इसी तरह से उड़द के एमएसपी को 3,300 रुपये से बढ़ाकर 4,300 रुपये और मूंग के एमएसपी को 3,500 रुपये से बढ़ाकर 4,500 रुपये प्रति क्विंटल करने को कहा गया है।

तिलहनों में मूंगफली के एमएसपी में 37 फीसदी की बढ़ोतरी कर भाव 3,700 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की गई है। इसी तरह से सोयाबीन के एमएसपी को 1,650 रुपये से बढ़ाकर 2,200 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की गई है। सनफ्लावर सीड का एमएसपी 2,800 रुपये से बढ़ाकर 3,700 रुपये प्रति क्विंटल करने की मांग की गई है।

खरीफ की प्रमुख फसल कपास के एमएसपी में 18 से 28.5 फीसदी की बढ़ोतरी करने की सिफारिश की गई है। कपास (मीडियम स्टेपल) का एमएसपी 2,800 रुपये से बढ़ाकर 3,600 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की गई है जबकि कपास (लांग स्टेपल) का एमएसपी को 3,300 रुपये से बढ़ाकर 3,900 रुपये प्रति क्विंटल तय करने की सिफारिश की गई है। (Business Bhaskar....R S Rana)

गेहूं निर्यात में पारदर्शिता के लिए हो ऑनलाइन नीलामी प्रक्रिया

जानकारों के मुताबिक निविदा में रहती है गड़बड़ी की आशंका

यदि सरकार किसी गरीब या खाद्यान्न की कमी वाले देश को गेहूं निर्यात कर रही है तो ठीक है, यदि किसी निजी कंपनी को गेहूं जा रहा है तो इसकी नीलामी की जानी चाहिए।  -प्रशांत भूषण वरिष्ठ अधिवक्ता

अपारदर्शी तरीका
केंद्र सरकार ने 19 जुलाई 2011 को गैर-बासमती चावल के निर्यात की अधिसूचना जारी की थी। सरकार ने दस लाख टन चावल के लिए 82 निर्यातकों को पहले आओ पहले पाओ आधार पर निर्यात कोटा जारी किया था। इसके लिए एलओआई ई-मेल के जरिए आमंत्रित किए गए थे। आवेदन के लिए सिर्फ दो दिन का समय दिया गया था। इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी।

केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा के बजाए सरकार को ऑनलाइन नीलामी प्रक्रिया अपनानी चाहिए। जानकारों का कहना है कि निविदा में गड़बड़ी की आशंका रहती है, लेकिन ऑनलाइन नीलामी से पारदर्शिता बनी रहती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम कम होने के कारण भारत से सब्सिडी देकर ही निर्यात किया जा सकता है। इसलिए ऑनलाइन नीलामी से सब्सिडी के गलत इस्तेमाल को रोका जा सकता है।

स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (एसटीसी) ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मांगी है। इसमें विदेशी आयातक ही भाग ले सकेंगे तथा निर्यात कांडला और मुंद्रा बंदरगाहों से होगा। निर्यात विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 के गेहूं का होगा। निविदा में निर्यात की मात्रा और कीमत तय नहीं है।

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में अपने फैसले में कहा था कि प्राकृतिक संसाधन को व्यावसायिक उद्देश्य के लिए निजी क्षेत्र को बेचा जा रहा है तो उसकी नीलामी होनी चाहिए। जहां तक गेहूं निर्यात का सवाल है, यदि सरकार किसी गरीब देश या खाद्यान्न की कमी वाले देश को निर्यात कर रही है तो ठीक है, यदि किसी निजी कंपनी के पास गेहूं जा रहा है तो इसकी नीलामी की जानी चाहिए। उल्लेखनीय है कि 2जी स्पेक्ट्रम केस में सुप्रीम कोर्ट ने पहले आओ पहले पाओ नीति को भी गलत करार दिया था।

एमसंस इंटरनेशनल लिमिटेड के सलाहकार टी.पी.एस. नारंग ने बताया कि निविदा और नीलामी दोनों प्रक्रियाओं में गड़बड़ी की आशंका रहती है। गैर-बासमती चावल निर्यात के लिए सरकार ने ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू की थी लेकिन उसमें भी गड़बड़ी हुई। इसीलिए सरकार को गेहूं निर्यात ओपन जरनल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत करना चाहिए। निर्यातक चाहे तो केंद्रीय पूल से गेहूं खरीद सकता है। सरकार को एफसीआई के गेहूं का न्यूनतम दाम तय कर देना चाहिए।

एफसीआई के अनुसार विपणन सीजन 2012-13 के लिए गेहूं का एमएसपी 1,285 रुपये और इकोनॉमिक कॉस्ट 1822.50 रुपये प्रति क्विंटल है। बंदरगाह पर इसका भाव 233 डॉलर प्रति टन बैठता है। इसमें 30 से 40 डॉलर प्रति टन भाड़ा जोडऩे के बाद भाव 263-273 डॉलर हो जाता है। विपणन सीजन 2011-12 के एमएसपी के आधार पर एमएसपी में परिवहन लागत जोडऩे के बाद बंदरगाह पर गेहूं का भाव 248-258 डॉलर प्रति टन होगा। (Business Bhaskar....R S Rana)

देश में घटी सोने की मांग

सोने पर महंगाई के चढ़ते रंग से इसकी चाहत में कमी आ गई है।  भारत में सोने की मांग कमजोर पडऩे के चलते चीन में सोने की मांग आगे निकल चुकी है। जनवरी-मार्च के दौरान भारत में सोने की मांग 29 फीसदी घटकर 207.6 टन रह गई। जबकि इस दौरान चीन में सोने की मांग 10 फीसदी बढ़कर 255.2 टन पर पहुंच गई और भारत को पीछे छोड़कर चीन सोने का सबसे बड़ा बाजार बन गया है।
वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के अनुसार बढ़ती महंगाई के कारण भारत में सोने की मांग में कमी आई है। 2012 की पहली तिमाही (जनवरी -मार्च) में भारत में सोने की मांग 29 फीसदी घटकर 207.6 टन रह गई जबकि जनवरी-मार्च 2011 की पहली तिमाही में 290.6 टन सोने का आयात किया गया था। इस तिमाही में आभूषणों की मांग 19 फीसदी कम होकर 152 टन रह गई जबकि पिछले साल 187.6 टन आभूषणों की बिक्री हुई थी। सोने की निवेश मांग में पिछले साल की तुलना में 46 फीसदी की कमी आई है। जनवरी-मार्च 2011 में 103 टन सोने का निवेश किया गया था जबकि इस साल 55.6 टन सोने का निवेश हुआ है। हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय निवेशकों की दिलचस्पी ईटीएफ गोल्ड में बढ़ी है। चीन में आभूषणों की मांग 10 फीसदी बढ़कर 255.2 टन तक पहुंच गई। रिपोर्ट के अनुसार महंगाई से बचने के लिए चीन के लोग अब जमा पूंजी में सोने को शामिल कर रहे हैं। निवेश के लिहाज से जनवरी-मार्च 2012 के बीच चीन के लोगों ने 98.6 टन सोने की खरीदारी की। आभूषण के प्रति चीनी लोगों का प्यार बढ़ता जा रहा है। इस साल की पहली तिमाही में चीन के लोगों ने 156.6 टन के आभूषण खरीदे, जो पूरी दुनिया में आभूषणों की कुल मांग का 30 फीसदी है। आभूषणों की खरीदारी के मामले में चीन का यह अब तक का रिकॉर्ड है। चीन लगातार तीसरी तिमाही में ज्वैलरी का सबसे बड़ा बाजार बनकर उभरा है।
सोने की चाहत के मामले में चीन के कब्जे पर वल्र्ड गोल्ड काउंसिल के प्रबंध निदेशक (भारत एवं पश्चिम एशिया) अजय मित्रा कहते हैं - भारतीय स्वर्ण बाजार के लिए वर्ष 2012 की शुरुआत बहुत ही चुनौतीपूर्ण रही है। मूल्य वृद्धि, आर्थिक मंदी, सामाजिक बदलाव जैसी चुनौतियों के बावजूद सोना लोगों के आकर्षण का केंद्र बना रहा। हमें उम्मीद है कि आने वाले महीनों भारतीय मांग में सुधार होगा क्योंकि सोने के प्रति लोगों का प्यार और भरोसा बहुत पुराना है और उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले महीनों में भारतीयों के बीच सोने की मांग बढ़ेगी और भारत दोबारा सोने की चाहत के मामले में पहले पायदान पर खड़ा दिखाई देगा।
भारत में सोने की मांग कमजोर पडऩे की प्रमुख वजह सोने की आसमान छूती कीमतें हैं। (BS Hindi)

16 मई 2012

केंद्रीय पूल से गेहूं के निर्यात की प्रक्रिया शुरू

एसटीसी ने आयातकों से 24 मई तक निविदा मांगी

आर.एस. राणा नई दिल्ली

सरकार ने केंद्रीय पूल से गेहूं के निर्यात की प्रक्रिया शुरू कर दी है। इसके तहत स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (एसटीसी) ने केंद्रीय पूल से गेहूं निर्यात के लिए निविदा मांगी हैं। विदेशी आयातक ही इसमें भाग ले सकेंगे तथा कांडला और मुंद्रा बंदरगाहों से निर्यात किया जाएगा। विपणन सीजन 2011-12 और 2012-13 का ही गेहूं निर्यात किया जाएगा।

एसटीसी के एक अधिकारी ने बताया कि बांग्लादेश, दुबई और खाड़ी देशों में निर्यात की संभावनाएं हैं। बांग्लादेश ने हाल ही भारत से 300 डॉलर प्रति टन की दर से गेहूं खरीदा था। उन्होंने कहा कि विदेशी आयातकों से ही निविदा मांगी गई है तथा निर्यात भी वैसल के माध्यम से ही किया जाएगा। 24 मई निविदा भरने की अंतिम तिथि है।

एम संस इंटरनेशनल लिमिटेड के सलाहकार टी. पी. एस नारंग ने बताया कि सरकार बंदरगाह पर एमएसपी पर गेहूं उपलब्ध कराएगी, तभी निर्यात संभव हो पाएगा। चालू विपणन सीजन 2012-13 के लिए गेहूं का एमएसपी 1285 रुपये प्रति क्विंटल है। इस मूल्य पर बंदरगाह पर इसका भाव 233 डॉलर प्रति टन हो जाता है। इसमें 30 से 40 डॉलर प्रति टन का भाड़ा जोडऩे के बाद भाव 263-273 डॉलर प्रति टन होता है।

विपणन सीजन 2011-12 के एमएसपी में परिवहन लागत जोडऩे के बाद बंदरगाह पर गेहूं का भाव 248-258 डॉलर प्रति टन पड़ेगा।

उधर, रूस 260 से 262 डॉलर प्रति टन के भाव पर गेहूं बिक्री का ऑफर दे रहा है जबकि जुलाई में फसल आने के बाद इसमें करीब 20 डॉलर प्रति टन की और कमी आने की संभावना है। ऐसे में भारत से सीमित मात्रा में ही निर्यात होने की संभावना है।(Business Bhaskar....R S Rana)

पीडीएस के लिए सस्ती दालों का आवंटन रोकने की तैयारी

ईजीओएम की अगली बैठक में दाल आवंटन बंद करने पर फैसला संभव

सरकार का रुख
पीडीएस में आवंटन के लिए इस समय केवल पांच-छह राज्य ही दालों का उठाव कर रहे हैं। पहले स्कीम में ज्यादा राज्य दालों का उठाव कर रहे थे। राज्यों की दिलचस्पी घटने पर ही मंत्रालय ने पीडीएस में आवंटन और दालों का आयात बंद करने की सिफारिश की है।

राज्यों द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में वितरण के लिए सब्सिडी युक्त दालों के उठाव में दिलचस्पी नहीं दिखाए जाने के कारण केंद्र सरकार ने आवंटन बंद करने की तैयारी की है।

उपभोक्ता मामले मंत्रालय ने गरीबों को 10 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी पर दालों के आवंटन को बंद करने की सिफारिश की है। इसका फैसला खाद्य पर बनी उच्चाधिकार प्राप्त मंत्रियों के समूह (ईजीओएम) की बैठक को किया जाएगा। यह स्कीम जून 2012 में समाप्त की जा सकती है। उपभोक्ता मामले मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि पीडीएस में आवंटन के लिए इस समय केवल पांच-छह राज्य ही दालों का उठाव कर रहे हैं।


इसीलिए मंत्रालय ने पीडीएस में आवंटित की जाने वाली दालों का आयात बंद करने की भी सिफारिश की है। इसका भी निर्णय ईजीओएम की आगामी बैठक में होने की संभावना है। सीमित उठाव होने के कारण कंपनियां भी पीडीएस में आवंटन के लिए दलहन आयात में बेरुखी बरत रही है।
चालू वित्त वर्ष 2011-12 के पहले आठ महीनों अप्रैल से नवंबर के दौरान पीडीएस में आवंटन के लिए सार्वजनिक कंपनियों ने केवल 76,000 टन दलहन का ही आयात किया जबकि वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान 2.6 लाख टन दालों का आयात किया गया था।

पीडीएस में आवंटन के लिए सरकार ने चार सार्वजनिक कपंनियों एसटीसी, एमएमटीसी, पीईसी और नेफेड को अधिकृत किया हुआ है। पीडीएस के तहत आवंटन में सार्वजनिक कंपनियों को सरकार आयातित दालों पर 10 रुपये प्रति किलो की सब्सिडी देती है। उन्होंने बताया कि वित्त वर्ष 2010-11 में पीडीएस में आवंटन के लिए 12 राज्यों ने दालों का उठाव किया था।

इस दौरान सार्वजनिक कपंनियों ने 2.6 लाख टन दलहन का आयात किया था। वित्त वर्ष 2009-10 में पीडीएस में आवंटन के लिए सार्वजनिक कपंनियों ने 2.5 लाख टन दालों का आयात किया था तथा इस दौरान 10 राज्यों ने दालों का उठाव किया था।
कृषि मंत्रालय के तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार वर्ष 2011-12 में देश में दलहन उत्पादन 170.2 लाख टन होने का अनुमान है जबकि वर्ष 2010-11 में 182.4 लाख टन का उत्पादन हुआ था। (Business Bhaskar....R S Rana)

रबर के उत्पादन में भारी गिरावट

अप्रैल के दौरान प्राकृतिक रबर के उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज की गई है और कुल उत्पादन पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 7.2 फीसदी घट गया है। रबर बोर्ड के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, इस अवधि में कुल 52,700 टन प्राकृतिक रबर का उत्पादन हुआ जबकि अप्रैल 2011 में 56,800 टन रबर का उत्पादन हुआ था। अप्रैल 2012 में प्राकृतिक रबर की खपत 4.7 फीसदी घटकर 80,500 टन रह गई जबकि एक साल पहले की समान अवधि में 84,500 टन रबर की खपत हुई थी।
अप्रैल के दौरान आयात में 265 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई और यह 17,509 टन पर पहुंच गया जबकि पिछले साल की समान अवधि में 6518 टन रबर का आयात हुआ था। इस बीच, निर्यात में तेज गिरावट दर्ज की गई है और अप्रैल 2011 के 2214 टन के मुकाबले इस अवधि में महज 755 टन प्राकृतिक रबर का निर्यात हुआ। आंकड़ों के मुताबिक, 30 अप्रैल को कुल 2.26 लाख टन रबर का भंडार था जबकि पिछले साल अप्रैल में 2,68,781 टन रबर का भंडार था।
इस वित्त वर्ष में प्राकृतिक रबर का आयात नए रिकॉर्ड पर पहुंच सकता है क्योंकि महज एक महीने में 17,509 टन रबर की खरीद हो चुकी है। साल 2011-12 में कुल आयात 2,05,433 टन रहा था। कोच्चि के एक अग्रणी कारोबारी ने कहा - अप्रैल के रुख को देखते हुए कहा जा सकता है कि मार्च 2013 तक कुल आयात 2.5 लाख टन को पार कर जाएगा।
रबर बोर्ड ने साल 2012-13 के लिए प्राकृतिक रबर का उत्पादन व खपत क्रमश: 9.42 लाख टन और 10.06 लाख टन रहने का अनुमान जताया है। (BS Hindi)

14 मई 2012

जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई

संसदीय समिति ने कहा है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत बहुत कम जमाखोरों के खिलाफ कार्रवाई की गई। समिति ने सरकार को सुझाव दिया है कि वह राज्यों को इस कानून के तहत जमाखोरी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के लिए कहे।

उपभोक्ता मामले, खाद्य व सार्वजनिक वितरण प्रणाली संबंधी संसदीय स्थाई समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले तीन वर्षों 2009, 2010 और 2011 के दौरान इस कानून के तहत मारे गए छापों, गिरफ्तार व्यक्तियों, मुकदमों और सजा के अलावा बरामदगी के मामले बहुत कम रहे हैं।
देश की आबादी और आकार को देखते हुए यह संख्या बहुत कम है।

समिति ने कहा कि आवश्यक वस्तु अधिनियम और कालाबाजारी नियंत्रण एवं आवश्यक वस्तु अनुरक्षण अधिनियम के तहत कार्रवाई करना राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र में है। इस वजह से केंद्र को राज्यों पर इन कानूनों के तहत कार्रवाई करने में तेजी लाने के लिए दबाव डालना चाहिए।

समिति ने केंद्र सरकार को इन दोनों कानूनों के अनुपालन की निगरानी करने की सिफारिश की है। वर्ष 1989 में आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत 70 वस्तुएं शामिल थी। बाद में इन्हें घटाकर सिर्फ सात कर दिया गया। इन वस्तुओं में खाद्य पदार्थ, दवाइयां, फर्टिलाइजर, पेट्रोलियम उत्पाद, कच्चा जूट, खाद्य फसलों के बीच और फल शामिल हैं। (Business Bhaskar)

चीनी उद्योग के डिकंट्रोल पर किसानों की सशर्त सहमति

किसानों के सुझाव
मिलों व उत्पादकों में गन्ना सप्लाई का समझौता किया जाए
मिलों को खुले बाजार में पूरी चीनी की अनुमति दी जाए
उद्योग के विकास के लिए चीनी सेज बनाने की भी मांग

चीनी उद्योग को नियंत्रण मुक्त करने की मांग का किसान संगठन ने भी समर्थन किया है लेकिन इसके साथ ही शर्त रखी है कि गन्ना उत्पादक किसानों को चीनी मिलों को सभी उत्पादों से होने वाली आय का कम से कम 70 फीसदी हिस्सा मिलना चाहिए। किसान संगठन कंसोर्टियम ऑफ इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन (सीआईएफए) ने सरकारी पैनल को भेजे पत्र में सुझाव दिया है।

सरकार ने प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएमईएसी) के चेयरमैन सी. रंगराजन की अगुवाई में चीनी को नियंत्रण मुक्त करने के मसले पर अध्ययन करने के लिए पैनल बनाया है। यह पैनल अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट देगा। कंसोर्टियम ने मांग की है कि सरकार को चीनी उद्योग पर लगे सभी प्रकार के नियंत्रण हटाकर जल्दी से जल्दी मुक्त कर देना चाहिए।

कंसोर्टियम ने सुझाव दिया है कि मिलों को पूरी चीनी खुले बाजार में बेचने की आजादी दी जानी चाहिए। मिलों से राशन में वितरण के लिए सस्ते मूल्य पर लेवी चीनी लेने की व्यवस्था को खत्म करना चाहिए। गन्ना उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए कंसोर्टियम ने कहा है कि उत्पादकों और मिलों के बीच न्यूनतम मूल्य बंटवारा फॉर्मूला बनाना चाहिए।

इसमें गन्ना उत्पादकों की उत्पादन लागत को ध्यान में रखते हुए किसानों को कम से कम 70 फीसदी मिलों की आय मिलना सुनिश्चित करना चाहिए। मिलों के राजस्व में हिस्सेदारी के लिए चीनी, मिलों में उत्पादित बिजली, एथनॉल और अन्य उत्पादों की बिक्री को शामिल किया जाना चाहिए।

इस समय केंद्र सरकार फेयर एंड रिन्यूनरेटिव प्राइस (एफआरपी) तय करती है। मिलों को कम से कम इतना मूल्य किसानों को देना अनिवार्य होता है। इसके अलावा कई राज्य अपने स्तर पर स्टेट एडवायजरी प्राइस (एसएपी) तय करते हैं। इन राज्यों में तय होने वाले एसएपी पर गन्ने का भुगतान किया जाता है।

एसएपी का निर्धारण प्राय: एफआरपी से ज्यादा होता है। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य गन्ने का एसएपी लागू करते हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले जनवरी में रंगराजन की अगुवाई में पैनल का गठन किया था। पैनल की अब तक दो बैठकें हो चुकी हैं। इसकी रिपोर्ट जुलाई के पहले सप्ताह तक पेश होने की संभावना है। किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखकर सरकार ने मिलों पर कई तरह के प्रतिबंध लगा रखे हैं।


कंसोर्टियम ने गन्ना उत्पादकों और मिलों के बीच तीन साल के लिए निश्चित मात्रा में गन्ना सप्लाई के लिए समझौता होना चाहिए और इसमें होने वाले विवादों को निपटाने के लिए अथॉरिटी बनाई जानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मानकों की चीनी और एथनॉल के उत्पादन के लिए चीनी उद्योग के लिए स्पेशल इकॉनोमिक जोन बनाने का भी सुझाव दिया गया है। (Business Bhaskar)

जमाखोरी से चटखहुई हल्दी

काफी समय से फीका पड़ा हल्दी का रंग अब चटख होने लगा है। हाजिर बाजार में स्टॉकिस्टों की भारी खरीदारी के चलते कीमतों को समर्थन मिलना शुरू हो गया है। स्टॉकिस्टों और किसानों के बदले रुख की वजह से वायदा बाजार में भी हल्दी का रंग चढऩा शुरू हो गया है। पिछले पांच दिनों में वायदा बाजार में हल्दी की कीमतें करीब 10 फीसदी और हाजिर बाजार में करीब 15 फीसदी चढ़ चुकी है जबकि पिछले
एक साल में सुस्त मांग की वजह से कीमतों में 60 फीसदी की गिरावट हुई थी।
पिछले एक साल से हल्दी की कीमतों में लगातार गिरावट हो रही थी, जिससे किसानों को काफी नुकसान हो रहा था। नुकसान से बचने के लिए किसानों ने कम कीमत पर माल न बेचने का फैसला किया, जो अब रंग दिखाने लगा है। हल्दी में तेजी का दौर शुरू हो गया है। एनसीडीईएक्स पर हल्दी का मई अनुबंध बढ़कर 4020 रुपये, जून 4216, जुलाई 4420 और अगस्त 4600 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गया। हाजिर बाजार में भी कीमत 100 रुपये प्रति क्विंटल बढ़कर 3648 पर पहुंच गई।
ऐंजल ब्रोकिंग की नलिनी राव कहती हैं - दरअसल हाजिर बाजार में स्टॉकिस्ट जमकर खरीदारी कर रहे हैं। दूसरी तरफ किसान कम कीमत पर माल बेचने को तैयार नहीं हैं, जिसका असर वायदा बाजार पर भी पड़ रहा है। फिलहाल हल्दी की कीमतों में सुधार देखने को मिलेगा, लेकिन कीमतों के आगे का सफर आने वाला मॉनसून और कर्नाटक व तमिलनाडु की राजनीति पर निर्भर रहने वाली है क्योंकि इस बार रिकॉर्ड उत्पादन होने की बात की जा रही है।
देश में रिकॉर्ड उत्पादन होने के बावजूद स्टॉकिस्टों के हल्दी पर मेहरमान होने की वजह सरकार द्वारा उठाए गए कदमों को माना जा रहा है। हाल ही कर्नाटक सरकार ने हल्दी का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 5,000 रुपये प्रति क्ंिवटल तय किया है, इमसें 4092 रुपये न्यूनतम समर्थन मूल्य है और 908 रुपये प्रोत्साहन राशि है।
एसएमसी कमोडिटी के विश्लेषकों का कहना है कि एमएसपी की घोषणा के बाद इरोड में उत्पादकों ने अपना स्टॉक रोक लिया है। अब किसान 5,000 रुपये प्रति क्विंटल से कम दाम पर अपना माल नहीं बेचना चाह रहे हैं। दूसरी तरफ बाजार में ऐसी खबरें हैं कि तमिलनाडु सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य 10,000 रुपये प्रति क्ंिवटल तय करने वाली है। अगर ऐसा होता है तो किसान अपने उत्पाद की कीमत और ज्यादा मांगना शुरू कर देंगे। किसानों की एकता को देखते हुए कारोबारियों को उनके सामने झुकना ही पड़ेगा, यह सोचकर इस समय बाजार में जो माल आ रहा है उसे स्टॉकिस्ट हाथों हाथ ले रहे हैं।
वर्ष 2011-12 में हल्दी की पैदावार रिकॉर्ड 90 लाख बोरी (एक बोरी में 70 किलोग्राम) होने की संभावना जताई जा रही है जबकि वर्ष 2010-11 में हल्दी का कुल उत्पादन 69 लाख बोरी हुआ था। इरोड में 55 लाख बोरी हल्दी की पैदावार होने की संभावना जताई जा रही है, जो पिछले साल से 29 फीसदी अधिक है। देश में हल्दी की सालाना खपत 36-38 लाख बोरी है। मसाला बोर्ड के अनुसार अप्रैल -दिसंबर 2011 के बीच 62,000 टन हल्दी का निर्यात किया गया जबकि पिछले साल की इसी अवधि में 37,400 टन हल्दी का निर्यात किया गया था। रिकॉर्ड उत्पादन के साथ 2011-12 निर्यात के हिसाब से भी रिकॉर्ड बनाएगा, क्योंकि मसाला बोर्ड के हल्दी निर्यात का लक्ष्य अक्टूबर में भी पूरा हो गया है। निर्यातकों को उम्मीद है कि मई-जून में विदेशों से अच्छी मांग निकलेगी। (BS Hindi)

चीनी के निर्यात पर पाबंदी खत्म

सरकार ने चीनी निर्यात पर मात्रात्मक प्रतिबंध हटाने के फैसले को आज अधिसूचित किया। सरकार के इस कदम से उद्योग को अतिरिक्त चीनी निर्यात करने तथा गन्ना किसानों को बकाए का भुगतान करने में मदद मिलेगी जो 10,000 करोड़ रुपए से अधिक हो गया है। इस संबंध में किए गए निर्णय के एक सप्ताह से अधिक समय बाद खाद्य मंत्रालय ने अधिसूचना जारी किया है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में अंतर-मंत्रालई बैठक में चीनी को खुले सामान्य लाइसेंस (ओजीएल) के अंतर्गत रखते हुए इसके निर्यात पर लगे मात्रात्मक प्रतिबंध को हटाने का निर्णय किया गया। अधिसूचना के अनुसार 11 मई से चीनी निर्यात पर कोई मात्रात्मक प्रतिबंध नहीं होगा और निर्यातकों को 2011-12 विपणन वर्ष (अक्टूबर-सितंबर) के लिए अगले आदेश तक खाद्य मंत्रालय से ओजीएल के तहत निर्यात आदेश प्राप्त करने की जरूरत नहीं होगी।

अग्रिम मंजूरी योजना (एएएस) के तहत जब एक व्यापारी कच्ची चीनी का आयात करता है, तो इस व्यवस्था के तहत मिलों को उसके प्रसंस्करण के बाद वही माल निर्यात करने की बाध्यता है। इसके लिए निर्यात आदेश लेने की जरूरत नहीं होगी। पर यदि वे उसके बराबर किसी और चीनी का निर्यात करना चाहती है तो उसके लिए उन्हें एएएस के तहत आदेश प्राप्त करना होगा। मात्रा के आधार पर मिलों को आयातित कच्ची चीनी के प्रसंस्करण और उसे स्थानीय बाजार में बेचने की अनुमति होती है। बाद में इतनी ही मात्रा वह निर्यात कर निर्यात बाध्यता पूरी कर सकते हैं। (BS Hindi)

12 मई 2012

इस साल भी खूब लहलहाएंगी फसलें

सामान्य मानसून से बेहतर पैदावार के प्रबल आसार

बिजनेस भास्कर नई दिल्ली

लगातार तीसरे साल मानसून के सामान्य रहने से जिंसों की बेहतर पैदावार होने का अनुमान है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक एल एस राठौड़ ने बताया कि अभी तक की स्थिति के अनुसार जून के पहले सप्ताह में मानसून के केरल तट पर पहुंचने की संभावना है।

उन्होंने बताया कि मानसून के लिए जिम्मेदार मौसमी कारकों के मुताबिक 'ला-नीनो' स्थिर बना हुआ है। अभी तक की स्थिति के आधार पर ला-नीनो का ज्यादा प्रभाव पडऩे की संभावना नहीं है। हालांकि, ला-नीनो के आंशिक असर को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता तथा यह किस हद तक मानसून को प्रभावित करेगा, इस समय यह कह पाना मुश्किल है। मौसम विशेषज्ञ स्थिति पर लगातार नजर रखे हुए हैं। विभाग मानसून आने का आधिकारिक पूर्वानुमान अगले आठ-दस दिनों में जारी करेगा। उन्होंने कहा कि आमतौर पर 1 जून को केरल के तट पर मानसून पहुंच जाता है तथा इस बार भी पहले सप्ताह में ही मानसून के केरल के तट पर पहुंचने का अनुमान है। पश्चिमी विक्षोभ के कारण इस समय देश के कई राज्यों में आंधी या फिर बारिश हो रही है। इससे मानसून के प्रभावित होने की संभावना नहीं है। ये स्थानीय मौसमी घटनाएं हैं। उन्होंने कहा कि अप्रैल महीने में मौसम ठंडा रहने का भी असर मानसून पर नहीं पड़ेगा। कुल मिलाकर वर्ष 2012 के लिए दक्षिण-पश्चिम मानसून (जून से सितंबर) के पूर्वानुमान के अनुसार पूरे देश में सामान्य बारिश होने के आसार नजर आ रहे हैं। यह औसतन 96 से 104 फीसदी तक हो सकती है। 99 प्रतिशत बारिश होने का मतलब अच्छा मानसून होता है। मानसून का दूसरा अनुमान जून में जारी किया जाएगा।

राष्ट्रीय मध्यम अवधि मौसम पूर्वानुमान केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. एस सी कार ने बताया कि जून के पहले सप्ताह में केरल में मानसून पहुंचने की संभावना है, जबकि दिल्ली में जून के आखिर में आने का अनुमान है। (Business Bhaskar....R S Rana)

ग्वार गम के निर्यात आंकड़ों में हेराफेरी से स्टॉकिस्टों ने काटी चांदी

एपीडा ने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए निर्यात आंकड़े, फायदा बड़े ट्रेडिंग हाउसों और स्टॉकिस्टों को

आर.एस. राणा नई दिल्ली

ग्वार सीड और ग्वार गम में जिस समय कंपनियां आपसी गठजोड़ करके भारी मुनाफा कमा रही थीं, उस समय सरकार ने भी उनका खूब साथ दिया। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के अधीन काम कर रहे कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने अप्रैल से नवंबर 2011 के दौरान ग्वार गम के निर्यात आंकड़े कुल उपलब्धता से 20 हजार टन ज्यादा दिखा दिए, जिसका फायदा बड़े ट्रेडिंग हाउसों और स्टॉकिस्टों ने उठाया। एपीडा के आंकड़ों के अनुसार अप्रैल से नवंबर 2011 के दौरान 6.70 लाख टन ग्वार गम का निर्यात हुआ। यह इससे पिछले साल की समान अवधि से 4.42 लाख टन ज्यादा था। लेकिन इसके बाद एपीडा ने अप्रैल से दिसंबर के ग्वार गम के निर्यात आंकड़ों में कमी करते हुए इसे 5.03 लाख टन कर दिया। यही नहीं, नए आंकड़े काफी देर से जारी किए गए। मालूम हो कि ग्वार सीड और ग्वार गम में कंपनियों ने अक्टूबर 2011 से मार्च 2012 के दौरान एनसीडीईएक्स पर करीब 2,000 करोड़ रुपये का भारी मुनाफा कमाया।

टीकू राम गम एंड केमिकल प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर विपिन अग्रवाल ने बताया कि एपीडा ने बड़े ट्रेडिंग हाउसों और स्टॉकिस्टों को फायदा पहुंचने के लिए निर्यात के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए। उन्होंने बताया कि चालू सीजन में देश में ग्वार सीड का कुल उत्पादन 1.50 करोड़ क्विंटल का हुआ है। इसके अलावा 60 से 70 लाख क्विंटल का बकाया स्टॉक बचा हुआ था। एक क्विंटल ग्वार सीड से 30 किलो ग्वार गम बनता है। इस आधार पर ग्वार गम की कुल उपलब्धता करीब 6.50 लाख टन की बैठती है। लेकिन एपीडा ने वित्त वर्ष 2011-12 के पहले आठ महीनों (अप्रैल-नवंबर) के दौरान 6.70 लाख का निर्यात आंकड़ा पेश कर दिया। इसका असर ग्वार सीड और ग्वार गम की कीमतों पर पड़ा। रामा इंडस्ट्रीज के डायरेक्टर मेहुल मेहता ने बताया कि ग्वार गम के कुल उत्पादन का 80 फीसदी से ज्यादा निर्यात होता है। स्टॉकिस्टों की मिलीभगत से ही ग्वार सीड और ग्वार गम की कीमतें 15 फरवरी से 28 मार्च के दौरान करीब दोगुनी हो गईं। एनसीडीईएक्स पर जून वायदा अनुबंध में 15 फरवरी को ग्वार गम का भाव 49,171 रुपये था जो 28 मार्च को 82,540 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। इसी तरह ग्वार सीड का भाव इस दौरान 14,531 रुपये से बढ़कर 25,810 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। (Business Bhaskar.....R S Rana)